कैसे कैसे शूल खिल रहे,
मिली हुयी आजादी पर,
रोते होंगे,वे निश्चित ही,
उस कुर्बानी पर,इस बरबादी पर।
कैद हुआ समय का पहिया,
जंजीरों और सलाखों में,
कैसे चले मनमर्जी से,
हैंडिल जो उनके हाथों में।
जो बैठे थे गंगा घाट पर,
कर रहे थे मूर्ति विसर्जन,
उन तिलकधारियों पर बल मर्दन?
कर रहा बैठ धर्म रुदन।
कानून ताक पर रखा है सब,
सब कुछ उनके हाथों में,
प्रत्यक्ष प्रमाण देखो न,
कितनी ही भर्ती विवादों में।
आओ सब नंदवंशी आओ,
सब के सब आकर भर जाओ,
सामान्य वर्ग बैठ न जाये,
रिक्त कुर्सी बच न पाये?
चहुंओर उनकी फैली हरियाली,
जो फैलाते,बस केवल लाली,
एक पत्र उनका क्या टूटा,
हायतोबा मचा डाली?
उनके माली जो हैं मेहरबान,
अप्रत्याशित धनवर्षा कर डाली।
खुला हुआ प्रवेश द्वार,
कर पायें तब करें पार,
मिला तो,झरोखे से प्रवेश,
सीमित रहते बस द्वार भर।
पर बिना दरवाजे से प्रवेश किये,
तुले भीतर घुसने पर।
देखा अजब शिक्षा से नाता,
जो ककहरा पढ़ न पाता,
वो चढ़ कुर्सी पर देखो,
बच्चों का भविष्य बनाता।
लूट,भ्रष्टाचार,गुंडा़गर्दी का,
कचरा हर गली ,चौराहों पर,
मान-मर्यादा और पवित्रता,
कैसे गुजरे राहों पर?
जबरन कुचली,मसली शिखा,
अराजकता का धुवां फैल रहा,
सब नोटों की गड्डी से,
छूट कुर्ते का मैल रहा।
आघात से तिरछी हुयी घंटी,
आकार बिगडा़ मुखौटे का,
फिर भी कहां चैन भला,
हिसाब हर हत्यारे के दुखडे़ का।
कुछ वक्त बस और शेष,
टायर पाप से फूटेगा,
जिस सत्ता पर उछल रहे,
वो टुकडे़ टुकडे़ टूटेगा।
प्रभा मिश्रा 'नूतन '