तत्कालीन रचना
उसने हाल किसी की दुर्दशा पर,
किताबों में व्यक्त किया,
और हाथ ने मुँह बन्द कर,
उन्हें नज़रबन्द किया।
किताबें वो प्रतिबन्धित हुयीं,
जो आइना दिखा सकें,
कब क्या गलत हो रहा,
यह समाज को बता सकें।
किताबें क्या प्रिय वही,
जिसमें संवेदनायें हों सोई हुयी?
किताबें क्या प्रिय वही,
जिसमें अभिव्यक्ति दुर्दशा की खोई हुयी?
किताबें क्या प्रिय वही,
जो धर्मग्रन्थ बना सकें?
किताबें क्या प्रिय वही,
जो सत्य को सुला सकें?
किताबें क्या प्रिय वही,
जिसमें झूठी शान के निशान हों?
किताबें क्या प्रिय वही,
जिसमें तारीफों का बखान हो?
किताबें क्या प्रिय वही,
जिसमें लम्बा-चौढा़ गुणगान हो?
किताबें क्या प्रिय वही,
जिसमें लिखा कि तुम ही महान हो?
प्रतिबन्ध किताबों पर अवश्य,
पर हर शब्द है गुलाम नहीं,
जहाँ अवसर मिलेगा,
मुखरित होगा वह वहीं।
बाँध बने नदियों पर,
पर बाढ़ कोई रोक सके?
सत्य आजीवन कैद रहे पहरों में,
कैसे कोई सोच सके?
बह जाने दो हर गलती,
और हर गुनाह को,
वरना ज्वालामुखी फूटेगा,
बिखरेगी हर झूठी शान,
हर मिथ्या दम्भ टूटेगा।
प्रभा मिश्रा 'नूतन'