बदहाल,बदहवास,
बुन्देलखण्ड
व्यथित स्वयं की कथा पर,
रोता व्यथा पर।
खडा़ भुखमरी के कगार पर,
विगत चार वर्षों से,
अस्त-व्यस्त जूझता,
संघर्षों से।
धरा बंजर हुयी,
वर्षा का इंतजा़र कर,
तड़पती,सूखती,
अम्बर से प्यार कर।
छटपटाती,
सुहाग लुटी विधवा सी,
दिखती कांतिहीन,
हरियाली के शोक में,
जल के वियोग में।
भूखे जन,बचपन,
मूक पशुधन,
बूंद-बूंद पानी को तरसते,
और सूखे,
ह्रदयपुर,नरेशों के,
अघाने पेटों को,
तृप्ति परसते।
कौन इतना उदार?
जो डाले कृपादृष्टि अपार।
किससे कोई उम्मीद करे?,
जब प्रकुपित इंद्रदेव,
जिनके किसी शाप से विवश,
शापित जीवन जीने को,
खोद खुद का मनस्थल,
मिथ्या सांत्वना रस पीने को।
निर्दयी,पातकी वृत्तियां,
अनुदान राशि में,
बंदरबांट करने को,
करा रहीं जुगाड़कर,
उन्हीं क्षेत्रों में नियुक्तियां।
निर्मम सकल बुद्धियां,
जिनका सूखा पानी,
नयन सरिता का,
कूल सब अकूल,
रंग उतरा मानवता का।
क्षुधा पीडि़त ,
तृषित सच्चाइयां,
कभी निहारतीं अम्बर,
कभी उस धरा को,
जिससे था,
कुटुम्ब का जीवन संचालित,
जी तोड़ परिश्रम,
स्वेद,वक्त,लगन,
सब जिसे अनुप्राणित।
वही आज मीन जैसी,
तिल-तिल तड़पती,
जल के अभाव में,
सूखे के प्रभाव में।
जल रहे उर अलाव,
सिकतीं अवसाद की रोटियां,
पेट पीठ का करते आलिंगन,
झांकतीं देह से बोटियां।
चित्र का विचित्र चित्र,
कहाँ स्थिरता भूखे में?
जब प्राण पीडा़ में पडे़,
डूब रहे सूखे में।
उपजी विवशता
ने किये कितनों की,
मौत पर हस्ताक्षर,
बिखरा वर्तमान,
भविष्य बिगड़ता बिखरकर।
रूठे देव,झूठे जन,
दोनों कर रहे उपेक्षा अर्पण।
चतुर्दिक तिमिर,
दिखा रहा समाज का,
वास्तविक दर्पण।
बदहाल हालात,
दुर्भाग्य ,कर रहे,
नाजुक दौर के,
समक्ष समर्पण।
घिसटती रेत बीच,
जीविका नाव,
कचोटते,दुर्दिन,
करते घाव
समझे कौन भाव मन के?
रास ,रंग,प्रीति,साथ,संग,
तीज,पर्व,हास,विलास,उमंग,
सिमटे,देख पतझड़ जीवन के।
मासूम नयनों की,
बिलबिलाती सुइयां,
टिक टिक करतीं,
ठंडे़ चूल्हों की घडि़यों में,
आतीं बार बार,
टिकतीं केन्द्र बिंदु पर,
निवालों के त्राण में,
चाहें कोई मसीहा पधारे,
जल दे,अन्न दे,
खेतों में,पेटों में,
झोके तृप्ति,बुझते प्राण में।
दुखी वे चूल्हे भी,
कैसे व्यक्त करें मनोदशा?
जो जलकर भी,
मुस्काते थे,
देकर तृप्ति मानों,
सुकून मिलता,स्वर्गानंद सा।
चिंतन करता अतिक्रमण,
परिजनों के मस्तिष्क में,
कि क्या दीनों के नाथ,
भी हैं 'उन्हीं 'के सहायतार्थ?
यही बुन्देलखण्ड,
जो था परिपूर्ण कभी,
ग्रेनाइट,गोरा पत्थर,
रेत,बजरी,तेंदुपत्र,
आँवला,हर्र,जैसी,
प्राकृतिक सम्पदाओं से,
पटा झांसी की रानी,
की शौर्य कथाओं से,
वही शरबिद्ध पंक्षी सा,
तड़पता चक्रव्यूह में,
विपदाओं से।
विवश जन,
देहरी छोड़ने को,
सहकर हानियां,
पशुधन विक्रय को,
दो निवालों की चाह में।
दांव खेलतीं मजबूरियां,
गिरवीं रखतीं संतानों को,
ढ़केलतीं नियति की पनाह में।
दम तोड़ते उद्योग,
बचपन संलग्न,
जंगली फल खा,
क्षुधा मिटाने में,
बढा़ पशुवृत्ति को समाज,
लगा स्वहित पकाने में।
एक ओर,
ऊँची,ऊँची अट्टालिकायें,
प्रतिमान दर्प की,
वध कर इंसानियत का,
सो रहीं।
मलिन, संकीर्ण,
मूर्तिमान मानसिकतायें,
विवेकबोध धो रहीं,
धर्मध्वज पताकायें,
अपना अस्तित्व खो रहीं।
दूसरी ओर,
क्षुधा की ,तृष्णा की,
रोतीं जिनमें वेदना,टीस,
निरीहता,
देख देख,
जलहीन जनों को,
हो रही वितृष्णा सी।
उमड़ रही हैं शिरायें,
कोह का उबाल ले,
चल रहीं विचार तरंगें,
नयनों में अनेक सवाल ले,
कि क्या सुधरेंगी,
कभी हमारी स्थितियां?
कब करेंगी भाग्य देवी,
पूर्व दिवसों की वापसी,
कब मिटेगी?
हमारी ये त्रासदी।
प्रभा मिश्रा 'नूतन'