गीता - कर्मयोग – कर्म की तीन संज्ञाएँ
गीता के जीवन-दर्शन के अनुसार मनुष्य बहुत महान है और असीम
शक्ति का भण्डार है |
वास्तव में गीता एक ऐसा पवित्र ग्रंथ है जो मनुष्य को सदैव आगे बढ़ने की प्रेरणा
देता है | मृत्यु के संभावित भय को
दूर कर हमें कर्तव्यपरायण होने की शिक्षा देता है | मनुष्य को बताता है कि बिना फल की चिन्ता के किया गया कर्म
सर्वश्रेष्ठ होता है | कर्म
की सविस्तार चर्चा करते हुए गीता में कहा गया है “कर्मणो
ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं न विकर्मण:, अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गति: |” (4/17) –
कर्म की गति गहन है | “करमन की गति न्यारी |”
कर्म, अकर्म और विकर्म का परिपाक करके ही विचार करना
चाहिये | याज्ञवल्क्य तथा अन्य स्मृतिकारों ने तो मानवता के पतन का करण ही यह
बताया है कि यदि मनुष्य विधि नियम रूप से प्रतिपादित कर्मों का त्याग तथा निषिद्ध
कर्मों की उपादेयता अर्थात इन्द्रियों को अनुशासित सीमा के अतिरिक्त प्रवाहित होने
देगा तो मानवता का पतन निश्चित है “विहितस्यानुष्ठानात्
निन्दितस्य च सेवनात् अनिग्रहाच्चेन्द्रियाणाम् नरः पतनमृच्छति |”
अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि कौन से कर्म कर्तव्य हैं
और कौन से अकर्तव्य ? तथा मनुष्य कर्म करने में स्वतन्त्र है अथवा परतन्त्र ? और
क्या भोग के बिना कर्मों का नाश और मुक्ति सम्भव है ? यद्यपि कर्म के रहस्य को
समझने में बुद्धिमान पुरुषों की बुद्धि भी चकरा जाती है “किं
कर्म किमकर्मेति कवयोSप्यत्र मोहिता: |”
तथापि गीता में इसका अत्यन्त युक्तियुक्त वर्णन उपलब्ध होता है | गीता का तृतीय
अध्याय तो कर्मयोग के नाम से ही जाना जाता है, किन्तु अन्य अनेकों स्थानों पर भी
कर्म की चर्चा आई है, जो भक्तिमिश्रित है |
कर्म की तीन संज्ञाएँ बताई गई हैं – कर्म, अकर्म और विकर्म
| इनमें पहली संज्ञा है कर्म | मन वाणी और शरीर से होने
वाली विधिसंगत उत्तम क्रिया ही कर्म है | किन्तु ऐसी क्रिया भी कर्ता के भावों की
भिन्नता के कारण अकर्म या विकर्म बन जाती है | जैसे फल की इच्छा से शुद्ध
भावनापूर्वक जो यज्ञ तप दान सेवा आदि विधिसंगत उत्तम कर्म किया जाता है वह कर्म
होता है | किन्तु यदि उन्हीं विधेय कर्मों के फल की कामना के रूप में अशुद्ध भावना
है तो वह कर्म विधेय होते हुए भी उसमें
तमोगुण आ जाने के कारण विकर्म बन जाता है “मूढ़ग्राहेणात्मनो
यत्पीडया क्रियते तपः, परस्योत्सादनार्थं वा तत्तामसमुदाहृतम् |” (17/19)
इसी प्रकार आसक्तिरहित भगवदर्पण बुद्धि से अपना कर्तव्य
समझ कर जो कर्म किया जाता है, कर्तापन के अभिमान से रहित होकर जो कर्म किया जाता
है वह अकर्म हो जाता है “यत्करोषि यदश्नासि
यज्जुहोषि ददासि यत्, यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् | शुभाशुभफलैरेवं
मोक्ष्यसे कर्मबन्धनै:, सन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ||” (9/27,28) इस
प्रकार के भावार्थयुक्त अनेकों कथन गीता में यत्र तत्र बिखरे पड़े हैं |
दूसरे प्रकार के कर्म विकर्म कहलाते हैं | ये कर्म निषिद्ध होने के कारण दुःखदायी होते हैं | ये
कर्म निन्दित होते हुए भी यदि शुद्ध फल की कामना से किये जाएँ तो कर्म बन जाते हैं
“जातस्य हि ध्रुवोर्मृत्यु: ध्रुवं जन्म मृतस्य च,
तस्मादपरिहार्येSर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि |” (2/27) जैसे कि हिंसा निषिद्ध कर्म है, किन्तु लोककल्याणार्थ
यदि किसी आतंकी का वध करना पड़ जाए तो उसमें लोककल्याण की शुद्ध भावना निहित होने
के कारण वह विकर्म भी कर्म की श्रेणी में आ जाता है | इसी प्रकार आसक्ति और अहंकार
से रहित होकर शुद्ध भाव से किये गए विकर्म भी अकर्म हो जाते हैं “सुखसु:खे समं कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ, ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं
पापमवाप्स्यसि |” (2/38) तथा
“यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते, हत्वापि सा इमाल्लोकान्न हन्ति न
निबध्यते |” (18/17)
कर्मों की तीसरी संज्ञा है अकर्म | जो कर्म या कर्मत्याग किसी फल की उत्पत्ति का कारण न हो वह अकर्म
हो जाता है “प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्,
आत्मान्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते || दु:खेष्वनुद्विग्नमना सुखेषु
विगतस्प्रह:, वीतरागभयक्रोध: स्थितधीर्मुनिरुच्यते || यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य
शुभाशुभम्, नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ||” (2/55-57)
कर्ता के भावानुसार कर्म और विकर्म की भाँति अकर्म भी
कर्म या विकर्म हो जाता है | यदि किसी व्यक्ति को कर्म त्यागने के पश्चात यह
अभिमान आ जाए कि उसने तो कर्मों का त्याग किया है तो यह “त्यागरूप” कर्म हो जाएगा
| इसी प्रकार स्वार्थ के कारण या दूसरों को ठगने के लिये कर्मत्याग विकर्म हो जाता
है | “कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्,
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते ||” (3/6)
तथा “नियतस्य तु सन्यास: कर्मणो नोपपद्यते, मोहात्तस्य
परित्यागस्तामस: परिकीर्तिते | दु:खमित्येव यत्कर्म नियतं क्रियतेSर्जुन, स कृत्वा
राजसं त्यागं नैव त्यागफलं लभेत् ||” (18/7,8)