हाँ, ऐसी ही हूँ मैं...
मन चाहे खुशियों के
पंख लगा
ऊँचे आकाश में उड़
जाना
और पहुँच जाना किसी
ऐसी जगह
जहाँ कोई न हो पास
मेरे
बस मैं रहूँ और मेरी
प्यारी सखी
मेरी अन्तरात्मा
ऐसी ही हूँ मैं...
करती हूँ घण्टों
अकेली बैठकर
अपनी तन्हाई से कुछ
बातें
क्यों सोचूँ दुनिया
की, अपने आस पास की
चुरा लेती हूँ कुछ
क्षण अपने भी लिए
ताकि फिर से जीवित
हो सके
मेरे भीतर की वो
चुलबुली सी लड़की
हाँ, ऐसी ही हूँ मैं...
जो खेलती थी कंचा
गोली
गेंद तड़ी और गुल्ली
डण्डा
"गली के बच्चों के साथ"
फिर मिलती थी डाट
माँ से
"धुले कपड़े देखो तो कैसे काले करके लाई है"
और मैं जा छुपती थी
भूरी स्नेहिल आँखों
से मुस्कुराते बाबा की गोद में
और चिढ़ा देती थी
मुँह देखकर माँ को
हँस पड़ते थे दोनों
देखकर मेरा बचपना
हाँ, ऐसी ही हूँ मैं...
हाथ में किताबों का
बैग पकड़े तैयार होकर
खड़ी होती शीशे के
सामने / रखकर सर पर दुपट्टे का कोना
"ऐसी लगूँगी दुल्हन बनकर मैं"
पीछे से माँ बाबा
होठों में हँसी दबाए
हौले से मारते सर पर
और खिलखिलाती मैं
उतर जाती सीढ़ियाँ
हाँ, ऐसी ही हूँ मैं...
कॉलेज में पढ़ाते, मंच पर नाचते बोलते
देखती - कितनी हसरत
से तकते हैं मुझे सब
और मुखर हो उठती
अपने कर्म में
हाँ ऐसी ही हूँ
मैं...
आज माना बाल हो गए
हैं सफ़ेद
चेहरे पर शायद हों
झुर्रियाँ भी
लेकिन नहीं है मुझे
ज़रूरत छिपाने की
बालों की सफेदी या
चेहरे की झुर्रियाँ
क्योंकि
"मैं" तो हूँ मेरी आत्मा
आत्मा / जिसकी नहीं
होती कोई अवस्था
इसीलिए रहती है सदा
प्रसन्न
खिलखिलाती है आनन्द
में भर
नाचती गाती है मस्ती
में भर
बाँध लेने को सारा
ब्रह्माण्ड अपने आँचल में
हाँ, ऐसी ही हूँ मैं...