जीवन में सुख और दुःख ये दोनों
चक्रनेमि क्रम से आते जाते ही रहते हैं... उसी प्रकार जैसे दिवस के बाद सन्ध्या का
आगमन होता है... उसके बाद निशा का... और पुनः दिवस का... चलता रहता है यही क्रम...
तो क्यों किसी भी कष्ट की अथवा विपरीत घड़ी में चिन्तित होकर बैठा जाए...? क्यों न
प्रयास किया जाए पुनः आगे बढ़ने का... कुछ इसी प्रकार के उलझे सुलझे से भावों के
साथ प्रस्तुत है हमारी आज की रचना... कहानी दिवस और निशा की... कात्यायनी...
हर भोर उषा की किरणों के साथ
शुरू होती है कोई एक नवीन कहानी…
हर नवीन दिवस के गर्भ में
छिपे होते हैं न जाने कितने अनोखे
रहस्य
जो अनावृत होने लगते हैं चढ़ने के साथ
दिन के…
दिवस आता है अपने पूर्ण यौवन पर
तब होता है भान
दिवस के अप्रतिम दिव्य सौन्दर्य का…
सौन्दर्य ऐसा, जो करता है
नृत्य
रविकरों द्वारा दी गई ताल की मतवाली
लय पर
अकेला, सन्तुष्ट होता स्वयं के ही नृत्य से
मोहित होता स्वयं के ही सौन्दर्य और
यौवन पर
देता हुआ संदेसा
कि जीवन नहीं है कोई बोझ
वरन है एक उत्सव
प्रकाश का, गीत का, संगीत का, नृत्य का और उत्साह का…
दिन ढलने के साथ
नीचे उतरती आती है सन्ध्या सुन्दरी
तो चल देता है दिवस / साधना के लिए मौन की
ताकि सुन सके जगत
सन्ध्या सुन्दरी का मदिर राग…
और बन सके साक्षी एक ऐसी बावरी निशा का
जो दिवस की ही भाँति यौवन के मद में चूर हो करती है नृत्य
पहनकर झिलमिलाते तारकों का मोहक परिधान
चन्द्रिका के मधुहासयुक्त सरस विहाग की धुन पर…
थक जाएँगी जब दोनों सखियाँ
तो गाती हुई
राग भैरवी / आएगी भोर सुहानी
और छिपा
लेगी उन्हें कुछ पल विश्राम करने के लिए
अपने अरुणिम
आँचल की छाँव में…
फिर भेजेगी
सँदेसा चुपके से / दिवस प्रियतम को
कि अवसर है, आओ, और दिखाओ अपना मादक नृत्य
सूर्य की
रजत किरणों के साथ
ऐसी है ये
कहानी / दिवस और निशा की
जो देती है
संदेसा / कि हो जाए बन्द यदि कोई एक द्वार
या जीवन
संघर्षों के साथ नृत्य करते / थक जाएँ यदि पाँव
मत बैठो
होकर निराश
त्याग कर
चिन्ता बढ़ते जाओ आगे / देखो चारों ओर
खुला मिलेगा
कोई द्वार निश्चित ही
जो पहुँचाएगा
तुम्हें अपने लक्ष्य तक
निर्बाध... निरवरोध…
उसी तरह
जैसे ढलते ही दिवस के / ठुमकती आती है सन्ध्या साँवरी
अपनी सखी
निशा बावरी के साथ
और थक जाने
पर दोनों के
भोर भेज
देती है निमन्त्रण दिवस प्रियतम को
भरने को
जगती में उत्साह
यही तो क्रम
है सृष्टि का… शाश्वत… चिरन्तन…