कालिदास वर्तमान परिप्रेक्ष्य में
प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व से तृतीय शताब्दी ईस्वी के मध्य कार्तिक शुक्ल द्वादशी को संस्कृत के महान कवि कालिदास का जन्म माना जाता है | कुछ लोगों ने आषाढ़ शुक्ल प्रतिपदा को भी कालिदास की जन्म तिथि के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया है – किन्तु अधिकाँश में कार्तिक शुक्ल द्वादशी ही मानी जाती है | इसी प्रकार इनके जन्म स्थान के विषय में भी मतभेद हैं | इनकी रचनाओं के ही आधार पर कुछ लोग उज्जयिनी में इनका जन्म स्थान मानते हैं तो कुछ लोग उत्तराखण्ड के रुद्रप्रयाग जिले के कविल्ठा को इनकी जन्मभूमि मानते हैं | कालिदास हमारे सदा से प्रिय कवि रहे हैं और सदा ही उनकी रचनाएँ हमें आकर्षित करती रहती हैं | आज कार्तिक शुक्ल द्वादशी – महाकवि की जयन्ती के अवसर पर प्रस्तुत है ये लेख –
कालिदास वर्तमान परिप्रेक्ष्य में... सम्भव है आपमें से कुछ पाठकों ने इसे पहले भी हमारे ब्लॉग पर पढ़ा हो...
हम समझते हैं कि कालिदास को अथवा किसी भी अन्य साहित्यकार को भाषा से ऊपर उठकर भावनाओं तथा निहित संदेशों को ध्यान में रखकर यदि पढ़ा जाए तो एक तथ्य स्पष्ट होता है कि हर साहित्यकार अपने देश काल का जन कवि होता है, उसी प्रकार जिस प्रकार कालिदास भारतीय संस्कृति और सभ्यता के जन कवि थे, आज भी हैं और भविष्य में भी रहेंगे |
उनकी रचनाएँ वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी उतनी ही सम-सामयिक हैं जिस प्रकार उनके अपने समय में थीं | और इसी तथ्य को स्पष्ट करने के लिये यह लेख लिखने का साहस हमने किया | महर्षि अरविन्द के अनुसार वाल्मीकि, व्यास और कालिदास प्राचीन भारतीय इतिहास की अन्तरात्मा के प्रतिनिधि हैं और सब कुछ नष्ट हो जाने पर भी इनकी कृतियों में भारतीय संस्कृति के प्राणतत्व सुरक्षित रहेंगे | इस कथन का तात्पर्य यही है कि वाल्मीकि और व्यास की भाँति कालिदास ने भी सत्यं शिवम् और सुन्दरं के अनुसन्धान का ही प्रयास किया है | भारतीय संस्कृति ने अपनी दीर्घकालीन साधना तथा अनुभव के आलोक में लोक संग्रह की भावना को ही प्रतिष्ठित किया है | कालिदास के साहित्य में भी सरल संस्कृत भाषा में यही लोक संग्रह मुखरित हुआ है | उन्होंने काव्य के महत्तम उद्देश्य “शिवेतरक्षतये” को ही अंगीकार किया है | वस्तुतः अशिव की क्षति और शिव की
स्थापना करने वाला साहित्यकार ही सच्चा साहित्यकार कहलाता है | और यदि भावना प्रबल है तो इस शिव की स्थापना करने हेतु लेखन में भाषा की क्लिष्टता अथवा सरलता कुछ भी आड़े नहीं आता, बस पाठकों के समक्ष होती है तो उस रचना में निहित वही लोक संग्रह की भावना |
कालिदास के व्यक्तिगत जीवन पर दृष्टिपात करने से एक तथ्य नितान्त स्पष्ट होकर सामने आता है कि जीवन अग्नि को प्रज्वलित करने के लिये सौन्दर्य के सुवर्ण का आकर्षण अत्यन्त आवश्यक है | हाँ मूल्यों की तुला पर उसे कभी आत्यन्तिक महत्व नहीं दिया जाना चाहिये | सौन्दर्य सागर के आवर्त-विवर्त में से होकर शिवं के पुनीत आदर्श का पथ प्राप्त होता है और अन्ततः लौकिक प्रेयस के ऊपर पारलौकिक श्रेयस की उपलब्धि होती है | कालिदास ने प्रेम के आदर्श को बहुत ऊँचा माना है | उनकी समस्त रचनाओं में यही ध्वनित होता है कि काम का कर्तव्य से विरोध नहीं होना चाहिये | शिव अर्थात् मंगल का विरोधी काम भस्मावशेष कर दिया जाता है | जिस प्रेम में कोई बन्धन नहीं, कोई नियम नहीं, जो प्रेम नर-नारी को अकस्मात् मोहित करके संयम दुर्ग के भग्न प्राचीर के ऊपर अपनी जय पताका गाढ़ता है उस प्रेम की शक्ति को कालिदास ने स्वीकार तो किया है, किन्तु उसके हाथों आत्मसमर्पण नहीं कर दिया | उन्होंने दिखलाया है कि जो असंगत प्रेम सम्भोग हम लोगों को अपने अधिकार में कर लेता है वह स्वाभिशाप से खण्डित, ऋषि शाप से प्रतिहत और दैव रोष से भस्म हो जाता है | दुष्यन्त और शकुन्तला का बन्धन विहीन गोपन मिलन चिरकाल तक शाप के अन्धकार में विलीन रहा | शकुन्तला को आतिथ्य धर्म का विचार नहीं रहा | उस समय शकुन्तला के प्रेम का मंगल भाव मिट गया | दुर्वासा के श्राप और शकुन्तला के प्रत्याख्यान द्वारा कवि ने यह सिद्ध किया है कि जो उन्मत्त प्रेम संसार की परवाह नहीं करता, सारा संसार उसके विरुद्ध हो जाता है और वह प्रेम थोड़े ही दिनों में दूभर हो जाता है | शकुन्तला और दुष्यन्त प्रेम के प्रथम आवेग में ही विवाह कर लेते हैं | किन्तु प्रेम का वास्तविक मूल्य उन्होंने नहीं पहचाना था | अतः कवि को उन्हें एक पाठ पढ़ाना था : “अतः परीक्ष्य कर्तव्यं विशेषात् सगतं रह:, अज्ञातहृदयेष्वेवं वैरी भवति सौर्हृदम् |”
कालिदास के अनुसार उत्थान की प्रक्रिया में यदि मानव का पतन हो भी जाए तो उसे फिर से उठने की चेष्टा करनी चाहिये | मृगया के लिये आश्रम में प्रवेश करने के बाद शकुन्तला को देखना दुष्यन्त का पतन था | राजधानी में आकर शकुन्तला को भूल जाना पतन की चरम सीमा थी | किन्तु उसके बाद कवि ने बड़े कौशल से उन्हें ऊपर उठाया है | किसी भी सुन्दर स्त्री को देखकर मोहित हो जाने की मधुकर वृत्ति उनमें नहीं है | एक असाधारण रूपमती युवती उनसे पत्नी भाव के अपने अधिकार की भिक्षा माँग रही है, दूसरी ओर धर्म का भय है | किन्तु शकुन्तला का स्मरण आने पर जब उन्हें विरह सताता है तब भी वे न्याय धर्म के अनुसार राज्य कार्य में संलग्न हैं | और अन्त में वे शकुन्तला से मिलकर महाभारत के दुष्यन्त के समान गर्वपूर्वक यह नहीं कहते कि “यच्च कोपितयाऽत्यर्थं त्वयोक्तोऽन्यस्य प्रियं प्रिये, प्रणयिन्या विशालाक्षि तत्क्षांत ते मया शुभे |” अर्थात् मैंने आज अपने प्रेम से तुम्हारा क्रोध शान्त कर दिया है | अपितु उसके पैरों में गिरकर क्षमायाचना करते हैं | वे कोरे कामुक नहीं हैं | वे प्रेमी हैं, पुत्र वत्सल हैं, कवि हैं, चित्रकार हैं, और साथ साथ कर्तव्यपरायण राजा भी हैं |
कालिदास वासनाजन्य प्रेम के पक्षपाती नहीं थे | शिव पार्वती का विवाह केवल रति सुख के लिये नहीं था | वरन् तारकासुर का संहार करने वाले परम तेजःपुंज कार्तिकेय के जन्म के निमित्त था | उनहोंने शिव और पार्वती के दैवी विवाह को मानवीय विवाह के प्रतिरूप में उपस्थित किया है | काम वासनाओं को जलाए बिना सच्चे स्नेह की उपलब्धि नहीं हो सकती | क्या ही अच्छा हो कि हम कालिदास के द्वारा कुमारसम्भव में प्रतिष्ठित विवाह के आदर्श को अपने आज के जीवन में उतार सकें तो पति पत्नी के बीच अन्यान्य विवादों के लिये स्थान ही नहीं रहेगा और पारिवारिक विघटन जैसी समस्याओं से छुटकारा प्राप्त हो सकता है | विवाह जीवन को व्यवस्थित करने की शैली है और सन्तानोत्पत्ति जीवन को संयमित करने का विधान |
सन्तान की आवश्यकता तारकासुर नामक दैत्य का वध करने, अर्थात् जीवन के वासना रूपी शत्रु का वध करने के लिये होनी चाहिये, देश पर बोझ बनने के लिये नहीं | कुमारसम्भव का आदर्श हमें परिवार कल्याण की कल्याणकारी भावना आत्मसंयम द्वारा अपनाने की प्रेरणा देता है |
महाकवि कालिदास की रचनाओं में सर्वत्र एक उदात्त नैतिकता अथवा आदर्श भारतीय मर्यादा का चित्रण हुआ है | भारत की इस नैतिक एवं कलात्मक संस्कृति का जो चित्रण कालिदास ने अपनी रचनाओं में किया है वह मानों सारे संसार के लिये आदर्शभूत है | शाकुन्तल के प्रथम अंक में ही शकुन्तला की पलकों और अधरों आदि का स्पर्श करते हुए भँवरे को देखकर दुष्यन्त कहते हैं “वयं तत्वान्वेषान्मधुकर हतास्त्वं खलु कृती” अर्थात् तत्व का अन्वेषण करते करते हम हार गए, किन्तु तुम
कृतार्थ हो गए | इस कथन में इस सिद्धान्त की ओर कवि का सूक्ष्म संकेत है कि जीवन रूपी मधु की प्राप्ति तत्वान्वेषण बुद्धि द्वारा सम्भव नहीं | उस मधु के आस्वादन के लिये आवश्यकता है उस सहृदयता की जो उसके मार्मिक रहस्य का उद्घाटन कर सके और उसके रस का आस्वादन कर सके |
कालिदास के अनुसार जीवन जीने के लिये है | उपभोग के लिये है | उसके आकर्षण से न तो व्यर्थ आँखें मूँदने की आवश्यकता है, न ही उसके दायित्वों से पलायन करने की | जीवन का सम्पूर्ण उपभोग सौन्दर्य रस का पान करते हुए तथा कर्तव्य पालन का सन्तोष करते हुए नि:शेष भाव से होना चाहिये | तथापि केवल बाह्य सौन्दर्य आत्यन्तिक रूप से हमारा साध्य नहीं है | मानव जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य है पुनर्भव से मुक्ति तथा परमानन्द की उपलब्धि | अतः जीवन की उपलब्धियों का
रस लेते हुए भी मानव को अन्तिम रूप में अनासक्त ही रहना है और आवागमन से मुक्ति पाने के उद्देश्य से अनुशासित होना है | इस प्रकार की मूल्य भावना से अनुप्राणित रहने वाला कवि कभी भी अपनी दृष्टि में सँकुचित नहीं रह सकता | वह मानवतावादी हो जाता है और मानव मात्र के लिये उसके ह्रदय का कोष खुल जाता है | इसीलिये कालिदास के ग्रन्थों में विश्व शान्ति के साधनों को यत्र तत्र खोजा जा सकता है | कालिदास मिट्टी के मनुष्य को स्वर्ग का देवता ही नहीं, वरन् लोकोत्तर मानव के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहते थे | उनका विचार था कि अच्छे कर्म करने से मानव भी देवता हो सकता है और कर्मच्युत होने पर देवताओं को भी पृथिवी पर गिरना पड़ता है |
वाल्मीकि मानवात्मा के विकास में भारतीय जाति की नैतिकता का परिचय देते हैं, व्यास बौद्धिक मनोवृत्ति की व्याख्या करते हैं तथा कालिदास भौतिक मनःस्थिति के प्रतिनिधि हैं | वे किसी महत्वशून्य युग के असावधान गायक नहीं हैं बल्कि एक जटिल और समृद्ध युग के पुरस्कर्ता हैं | विश्व के अन्य प्रमुख कवियों की भाँति कालिदास भी महाराज विक्रम के राजनीतिक परामर्शदाता, राजदूत एवं सन्धि विग्रह आदि के संयोजक रहे | इस प्रकार उन्होंने जीवन के सभी क्षेत्रों का व्यापक एवं गहन अनुभव प्राप्त किया था | इसी कारण वे रघु, दिलीप तथा अन्य रघुवंशी नरेशों जैसे प्रजावत्सलों की कल्पना कर सके | रघुवंश में वर्णित रघु की दिग्विजय समुद्रगुप्त तथा चन्द्रगुप्त द्वितीय की विजयों की प्रतिध्वनि है | कालिदास द्वारा वर्णित जन जीवन कितना समृद्ध एवं सन्तुष्ट था इसका परिचय चीनी यात्री फाहियान के वर्णनों में मिलता है | वह लिखता है – सारा भारतवर्ष सर्व धर्म समन्वय का आदर्श था, जन जीवन शान्त, सुरक्षित एवं निरपराध था | अतः बौद्धिक गवेषणा की दृष्टि से कालिदास ने सुनियोजित, सुनिबंधित एवं विधियों के संकलित तथा स्थिरीकृत शासन का परिचय दिया है | आज हमारे देश के लिये भी इसी प्रकार के विधियों के संकलन और स्थिरीकरण की आवश्यकता अनुभव हो रही है | जड़ीभूत हुए राष्ट्रीय मनोभाव को पुनः चैतन्य प्रदान करने के लिये हमें कालिदास के दिलीप और रघु जैसे शासक चाहियें | कालिदास हमें कला, विज्ञान, विधान, उपचारबद्ध तत्व विद्या तथा इन्द्रियनिष्ठ ऐश्वर्य का मार्ग बताते हैं |
श्री अरविन्द के अनुसार – कालिदास के काव्य में भौतिक युग का पूर्ण प्रकर्ष है तथा उसमें रुग्णता, असंतोष एवं भ्रम भग्नता का नितान्त अभाव है, जो प्रायः भौतिकता की दीर्घकालीन उपासना के उपरान्त सदा उत्पन्न हो जाते हैं | कालिदास का निश्चित उद्देश्य शासकों एवं समाज को यह चेतावनी देना था कि यदि उनमें से कोई भी आधारभूत आदर्शों से स्खलित हुआ तो जीवन अस्त व्यस्त हो जाएगा | राज्य संचालन कल्पनाशील विवेक पर आधारित हो, मात्र कठोरता पर नहीं | अज का शासन कौशल इसका प्रमाण है |
शाकुन्तल में कवि ने तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक एवं धार्मिक जीवन का यथार्थ चित्रण किया है | उस समय वर्णाश्रम धर्म पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित था | ब्राहमण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र हर वर्ग अपने अपने कर्तव्य धर्म का पालन करते हुए राष्ट्र की उन्नति में अपना अपना योगदान दे रहा था | परम्परागत कर्म निन्दित होते हुए भी त्याज्य नहीं समझा जाता था | शासक भयग्रस्त मनुष्यों की रक्षा करना अपना कर्तव्य समझते थे तथा प्रजा के हित में तत्पर रहते थे | न्याय निष्पक्ष होने पर भी कठोर नहीं था | आज इसी प्रकार की व्यवस्था की आवश्यकता है | आज हमें चारों ओर अशान्ति, असहिष्णुता, अविश्वास, ईर्ष्या, द्वेष, असहयोग आदि ही दिखाई दे रहा है | इसका कारण है राष्ट्रीयता का अभाव | प्रान्तीयता, भाषावाद, जातिवाद, परिवारवाद आदि के नाम पर पनपने वाले संघर्ष केवल राष्ट्रीय भावना के अभाव में ही जन्म लेते हैं | कालिदास के रघुवंश, कुमारसम्भव, मालविकाग्निमित्र आदि में राजा, प्रजा, राज्य के अन्य कर्मचारी सभी को राष्ट्र धर्म का पालन करने का सन्देश मिलता है | राष्ट्रीय शिक्षा, राष्ट्रीय सुरक्षा तथा राष्ट्र के आर्थिक समुन्नयन का रघुवंश में स्पष्ट संकेत है | रघुवंश के प्रथम सर्ग में ही समृद्ध राजभक्त ग्रामों का व्यापक वर्णन है | मेघदूत सारे राष्ट्र को एक स्नेह सम्बन्ध में बाँधने का प्रयत्न है | रघुवंश राजनीतिक समन्वय का प्रयास है तथा राष्ट्र की आर्थिक एवं औद्योगिक समृद्धि का मार्गदर्शक साधन हैं | कालिदास का स्वप्न भारत को निखिल विश्व का नायक बनाने का है : “सामन्तमौलिमणिरंजितपादपीठम्, एकातपत्रभवनेर्न तथा प्रभुत्वम् |” परन्तु कालिदास की यह प्रभुत्व कामना धर्म, ध्यान और योग पर आधारित है | जब तक प्रकृतिहित को शक्तिसत्ता का मूल नियामक मन्त्र नहीं किया जाता तब तक पुनर्भव का निराकरण नहीं हो सकता | शक्ति और सत्ता के इस लोक में एकदम न फँसकर पारलौकिक शान्ति एवं दिव्य आनन्द में समाहित होने को ही अन्तिम लक्ष्य समझें – यही कालिदास का द्रष्टार्थ है |
केवल राष्ट्रीय चेतना को ही परिष्कृत करने के कालिदास का प्रयास नहीं है | वे अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग एवं सह-अस्तित्व के लिये भी कामना करते दिखाई देते हैं | भारत की चिरकालीन आध्यात्मिक साधना ही मानव मन को सुख शान्ति एवं सन्तोष दे सकती है | कालिदास ने जीवन के लिये एक सुनिश्चित योजना की कल्पना की है | जिसके द्वारा “यावदभीप्सितार्थो” की सम्यक् सिद्धि की व्यवस्था है | उन्होंने प्रेयस के लिये श्रेयस की अवमानना नहीं की | सुन्दरं के लिये शिवं की कदर्थना नहीं की | युग युग का मानव मूलतः इसी संघर्ष में उलझता है और अन्त में मंगल मार्ग का वरण करके ही विकास की यात्रा में अग्रसर होता है | वस्तुतः लौकिक साधनाओं में प्राथमिकता का यही क्रम अंगीकार करके मनुष्य विश्व कल्याण की कामना कर सका है : “सर्वस्तरतु दुर्गाणि सर्वो भद्राणि पश्यतु, सर्वः कामानवाप्नोतु सर्वः सर्वत्र नन्दतु |” इसी साधना का उपाय बताकर कालिदास ने अपने ग्रन्थों में राष्ट्र एवं विश्व के लिये सुख और शान्ति के समस्त साधन सन्निहित कर दिये हैं और इस तरह कालिदास न केवल अपने समय के अपितु सदा सदा के लिये सम-सामयिक बन जाते हैं | और निश्चित रूप से, जो सम-सामयिक होता है – “भाषा” की क्लिष्टता अथवा “बोली” की सरलता - कुछ भी उसकी प्रसिद्धि को कम नहीं कर सकते |