गीता
– कर्मयोग अर्थात कर्म के लिए कर्म
“गीता जैसा ग्रन्थ किसी को भी केवल
मोक्ष की ही ओर कैसे ले जा सकता है ? आख़िर अर्जुन को युद्ध के लिये तैयार करने
वाली वाली गीता केवल मोक्ष की बात कैसे कर सकती है ? वास्तव में मूल गीता निवृत्ति
प्रधान नहीं है | वह तो कर्म प्रधान है | गीता चिन्तन उन लोगों के लिये नहीं है जो
स्वार्थपूर्ण सांसारिक जीवन बिताने के बाद अवकाश के समय ख़ाली बैठकर पुस्तक पढने
लगते हैं, और न ही यह संसारी लोगों के लिए कोई प्रारम्भिक शिक्षा है | इसमें
दार्शनिकता निहित है कि हमें मुक्ति की ओर दृष्टि रखते हुए सांसारिक कर्तव्य कैसे
करने चाहियें | इसमें मनुष्य को उसके संसार में वास्तविक कर्तव्यों का बोध कराया
गया है |” बालगंगाधर तिलक
स्वामी विवेकानन्द ने कर्मयोग
की दीपक से उपमा दी है - जिस प्रकार दीपक का जलना एवं उसके द्वारा प्रकाश का कर्म
होना उसमें तेल, बाती तथा मिट्टी के विशिष्ट आकार - इन सभी की विशिष्ट
सामूहिक भूमिका के द्वारा सम्भव होता है, उसी प्रकार समस्त गुणों की सामूहिक
भूमिका से कर्म उत्पन्न होते हैं |
इसी प्रकार फलों की सृष्टि भी
गुणों का कर्म है न कि आत्मा का | इसी का ज्ञान वस्तुतः कर्म के रहस्य का
ज्ञान है, इसे ही आत्म ज्ञान भी कहा गया है |
तात्पर्य यह है कि संस्कारवश उत्तम-अनुत्तम कर्म में स्वतः ही प्रवृत्ति होती है,
तथा संस्कारों के शमन होने पर स्वयं ही कर्मों से निवृत्ति भी हो जाती है,
ऐसा जानना ही विवेकज्ञान कहलाता है | और यह ज्ञान उत्पन्न हो जाने पर अनासक्त भाव
से कर्म होने लगते हैं, इन अनासक्त कर्मों को ही निष्काम कर्म कहा
गया है | इस निष्काम कर्म के द्वारा पुनः कर्मों के परिणाम
उत्पन्न नहीं होते | यही आत्म ज्ञान की स्थिति कही गयी है |
इससे ही संयोग करने वाला मार्ग “कर्मयोग”
कहा गया है |
योग
का साधारण अर्थ है जोड़ और यह धर्म, आस्था
और अंधविश्वास से परे है |
योग एक सीधा विज्ञान है | प्रायोगिक
विज्ञान है | योग है जीवन जीने की कला | योग एक पूर्ण चिकित्सा पद्धति है जो
कि मनोवैज्ञानिक है |
यह
एक पूर्ण मार्ग है |
वास्तव
में देखा जाए तो धर्म लोगों को बन्धन में बाँधता है और योग सभी तरह के बन्धनों से
मुक्ति का मार्ग बताता है | अध्यात्म
का मार्ग बताता है |
अध्यात्म
है क्या ? वह अनुभूति जहाँ सारी सीमाओं का अतिक्रमण हो जाता है, सब शब्द व्यर्थ हो
जाते हैं, सारी अभिव्यक्तियाँ शून्य हो जाती हैं | तो जो कर्म जोड़ने का कार्य करे
वह कर्मयोग है | और जब तक हम कर्म के द्वारा स्वयं से नहीं जुड़ते तब तक समाधि तक
पहुँचना कठिन होगा और कर्मयोग को निष्ठा पूर्वक करने वाला व्यक्ति कर्मनिष्ठ है,
कर्मयोगी है | इस योग में कर्म के द्वारा
ईश्वर की प्राप्ति की जाती है |
श्रीमद्भगवद्गीता में कर्मयोग
को सर्वश्रेष्ठ माना गया है | गृहस्थ और कर्मठ व्यक्ति के लिए यह योग
अधिक उपयुक्त है |
हममें से प्रत्येक किसी न किसी
कार्य में लगा हुआ है, पर हममें से अधिकांश अपनी शक्तियों का
अधिकतर भाग व्यर्थ खो देते हैं;
क्योंकि हम कर्म के रहस्य को
नहीं जानते | जीवन की रक्षा के लिए, समाज
की रक्षा के लिए, देश की रक्षा के लिए, विश्व
की रक्षा के लिए कर्म करना आवश्यक है |
किन्तु यह भी एक सत्य है कि
दु:ख की उत्पत्ति कर्म से ही होती है | सारे दु:ख और कष्ट आसक्ति से उत्पन्न हुआ
करते हैं | कोई व्यक्ति कर्म करना चाहता है, वह
किसी मनुष्य की भलाई करना चाहता है और इस बात की भी प्रबल सम्भावना है कि उपकृत
मनुष्य कृतघ्न निकलेगा और भलाई करने वाले के विरुद्ध कार्य करेगा |
इस प्रकार सुकृत्य भी दु:ख देता है | फल यह होता है कि इस प्रकार की घटना
मनुष्य को कर्म से दूर भगाती है | यह दु:ख या कष्ट का भय कर्म और शक्ति का
बड़ा भाग नष्ट कर देता है |
कर्मयोग सिखाता है कि कर्म के
लिए कर्म करो, आसक्ति रहित होकर कर्म करो |
कर्मयोगी इसीलिए कर्म करता है कि कर्म करना उसे अच्छा लगता है और इसके परे उसका
कोई हेतु नहीं है | कर्मयोगी कर्म का त्याग नहीं करता वह केवल
कर्मफल का त्याग करता है और कर्मजनित दु:खों से मुक्त हो जाता है |
उसकी स्थिति इस संसार में एक दाता के समान है और वह कुछ पाने की कभी चिन्ता नहीं
करता | वह जानता है कि वह दे रहा है, और
बदले में कुछ माँगता नहीं और इसीलिए वह दु:ख के चंगुल में नहीं पड़ता |
वह जानता है कि दु:ख का बन्धन ‘आसक्ति’ की
प्रतिक्रिया का ही फल हुआ करता है |