मोक्ष / नाश है अहं का...
अहं क्या है ?
मनुष्य के सुखी होने की अनुभूति ?
या फिर दर्द का अहसास ?
किसी का अपना होने की राहत ?
या फिर पराया होने का दर्द ?
लेकिन दुःख में भी तो है कष्ट का आनन्द...
अपनेपन से ही तो उपजता है परायापन
क्योंकि एक ही भाव के दो अनुभाव हैं दोनों
उसी तरह जैसे समुद्र में जल एक ही है...
वायु का शान्त स्नेहिल प्रवाह
उसे बनाए रखता है शान्त और अविचल
जो स्नेह से सहलाता रहता है निरन्तर / अपने वक्ष पर विश्राम करती नौकाओं को...
तेज़ बहे हवा, तो मचल उठती हैं तरंगे
और वही जल हो जाता है तत्पर / डुबा देने को प्रेयसि नौकाओं को...
एक ही जल कभी बन जाता है
श्वेत धवल प्रकाशित, आनन्द...
और कभी बन जाता है
फेन की चादर से आवृत्त तमस में जकड़ा, दुःख...
लेकिन समय आने पर जल भी बन जाता है वाष्प
आकाश में उड़, हो जाता है लीन शून्य में...
एकमात्र परिवर्तन जल का, अहं का
हो जाए, तो नहीं रहता कुछ भी शेष...
रह जाती है केवल मुक्त अनावृत आत्मा
नंगी भूमि की भाँति
जिसे नहीं है आवश्यकता स्वयं पर कुछ लादने की...
और इसी को योगी कहते हैं “मोक्ष”....