परम
सत्य प्रकृति का
आज सभी ने कन्या पूजन के साथ नौ
दिनों से चली आ रही दुर्गा पूजा सम्पन्न की और अब अपराजिता देवी की आराधना के साथ
विजयादशमी का पर्व मनाया जा रहा है... जिसे बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक कहा
जाता है... सभी को विजयादशमी की अनेकशः हार्दिक शुभकामनाएँ... आप सभी जीवन के हर
क्षेत्र में विजय प्राप्त करें यही कामना है... कन्या पूजन के बाद कुछ पलों के लिए
एकान्त में बैठे तो मन में कुछ उलझे सुलझे से विचार उत्पन्न हुए कि हम नवरात्रों
में माँ भगवती के तीनों चरित्रों की उपासना के बाद नवमी को कन्या पूजन के साथ नवरात्रों
का समापन करते हैं... विजयादशमी को भी भगवती के सम्मिलित रूप अपराजिता देवी की
पूजा अर्चना की जाती है... अर्थात नारी शक्ति की आराधना... जिसका अभिप्राय यही है
कि नारी यदि कोमलांगी और मृदुलहृदया है तो साक्षात शक्तिरूपा भी है... जगद्कारिणी
जगद्धात्री जगत्संहारिणी है... तो क्यों फिर उसके अस्तित्व के साथ खिलवाड़ मनुष्य
करता है... इसी प्रकार के विचारों के साथ प्रस्तुत है हमारी आज की रचना... परम
सत्य प्रकृति का... देव्यथर्वशीर्ष के कुछ मन्त्रों के हिन्दी अनुवादों के साथ...
रचना सुनने के लिए कृपया वीडियो देखें... कात्यायनी...
हाँ मैं दुर्गा / साक्षात नारी / पुरुषात्मिका
प्रकृति
अगर हूँ मैं कोमल छुई मुई सी /
लुटाती हुई मृदुता और स्नेह
तो हूँ साक्षात भैरवी भी / काली भी /
रुद्राणी भी / ब्राह्मी भी / वैष्णवी भी
जिससे हुआ उत्पन्न समस्त प्रकृति
पुरुषात्मक जगत
जगत / जो है सद्रूप भी और असद्रूप
भी...
मैं स्वयं ही हूँ आनन्दरूपा भी / और
स्वयं ही अनानन्दरूपा भी
विज्ञानरूपा भी मैं ही हूँ / और अविज्ञानरूपा
भी मैं ही हूँ
जिसे जाना जा सके सरलता से / ऐसी
ज्ञेया भी मैं ही हूँ
असम्भव हो जिसका ज्ञान / ऐसी अज्ञेया
भी मैं ही हूँ...
मैं ही हूँ पञ्चभूतरूप दृश्य जगत भी
/ तो विद्या और अविद्या भी
स्वयं प्रकृति रूप बनी / और स्वयं ही
भिन्न भी प्रकृति से...
समस्त रुद्रों वसुओं आदित्यों और
विश्वेदेवों में
समान रूप से जो करती है विचरण
स्वयं ही धारण करती है जो सोम को /
त्वष्टा को / पूषा को और भग को भी...
त्रिदेवों की धारणा शक्ति भी हूँ मैं
ही
तो मैं ही हूँ समस्त द्रव्यों को
धारण करने वाली वसुधा भी...
आत्मस्वरूप में मैं ही हूँ / करती
निर्मित समस्त द्यावापृथिवी को...
हृदय में छिपाए अग्नि सी ज्वाला /
शमीवृक्ष के समान
तो कभी करती मार्ग प्रशस्त / ज्ञान
के जगमग दीपक से...
मैं ही तो हूँ देवों द्वारा प्रदत्त
वैखरी / सरस्वती के रूप में
समस्त प्राणियों को बाँधती हूँ सूत्र
में एकता के / ज्ञानपूर्ण मधुर वाणी से...
विष्णु की शक्ति... काल की रात्रि...
स्कन्दमाता दक्षकन्या...
मुझमें ही तो समाहित हैं सब / कल्याण
के लिए जगत के...
दैवत्व प्राप्त होता है मानव को मेरे
ही कारण
तो कुपित होने पर असुर भाव को
प्राप्त ईशपुत्रों का भी करती हूँ नाश मैं ही...
समस्त जगत की आत्मा / जग ने जिसको
मान दिया माता का
ऐसी समस्त जगत की कारिणी हूँ मैं
ही...
विश्व को मोहित करके चितस्वरूप में
अवस्थित
मूलाक्षरकारिणी समस्त विद्याओं का
स्वरूप
ब्रह्मरूपिणी हूँ मैं ही...
समस्त कन्याओं में नवप्रस्फुटित
कलिका के समान
मैं ही करती हूँ विचरण / मोहक स्वरूप
से...
मैं स्वयं ही बनी मार्ग चल पड़ती हूँ
साथ पथिक के...
रोक सकोगे मार्ग प्रशस्ति का
मेरी...?
उत्तुंग हिमशिखरों तक है पहुँचा हुआ
भवन मेरे स्वप्नों का
कर पाओगे विचलित उन अगम्य शिखरों को
/ जो हैं सदा अडिग / अविचलित...
असीम समुद्रों के भी पार हैं मेरी
सीमाएँ
कर सकोगे पार उन सीमाओं को / जाने
बिना उनकी गहराइयों को...
दूर क्षितिज के भी पार पहुँचती हैं मेरी
भुजाएँ
भर सकोगे इतनी ऊँची उड़ान / लाँघने को
उन ऊंचाइयों को...?
यदि नहीं... तो क्यों करते हो प्रयास
व्यर्थ के... मिटाने को मेरा अस्तित्व...
करो शान्त तथा प्रफुल्लित मन से
स्वागत मेरे जन्म का...
सीखो आनन्दित होना हर प्रयास पर
मेरे...
सीखो गर्वित होना हर सफलता पर
मेरी...
तभी होगी पूर्ण साधना कन्या पूजन
की...
क्योंकि हर कन्या है अन्नपूर्णा...
सिद्धिदात्री... अपराजिता...
यही है परम सत्य इस सृष्टि का... समस्त
प्रकृति का...
__________________कात्यायनी डॉ
पूर्णिमा शर्मा