ज्योति...... ओ ज्योति....... ! दूर से आती, मौसी की आवाज सुनाई दी।
आई मौसी ! कहकर मैं बंसी से बोली -कल आउंगी तब खेलेंगे ,अब मौसी बुला रही है। बंसी ने हाँ में गर्दन हिलाई और मैं ,दौड़ते हुए मौसी के पास आ गयी ,वैसे तो मेरा नाम ''ज्योतस्ना ''है ,तब भी मौसी मुझे ज्योति ही कहती है। मैं जबसे अपने को समझने लगी हूँ ,तब से इन्हीं गढ़वाल की इन हरी -भरी वादियों में खेली हूँ और बड़ी हो रही हूँ। मैं ,मौसी , नानी और मामा हम लोग साथ में रहते हैं।
पहले तो मैं मौसी को ही माँ समझती रही किन्तु एक बार दो लोग आये ,जिन्हें मैंने पहली बार देखा। उन्हें देखकर ,मौसी और नानी प्रसन्न हुए और ये कहते हुए मुझे उनके पास ले गयीं -ले ,तेरे मम्मी -पापा आ गये।
पता नहीं ,मुझे कब छोड़कर गए होंगे ?किन्तु जब उनसे पहली बार मिली ,उनसे मिलकर बड़ा अजीब लग रहा था । किसी अजनबी की तरह उनसे मिली किन्तु आज पहली बार मालूम पड़ा कि मेरे माता -पिता हैं जो मुझे नानी के पास छोड़कर गए है। कारण नहीं पता चला ,वे मेरे लिए खिलोेने भी लाये ,फल भी लाये ,इससे पहले कि मैं उन्हें थोड़ा और समझ पाती , वो लोग चले गए। मैं नानी के पास ही रह गयी। अब मुझे यहीं अपना घर लगता ,जब मैं थोड़ा और बड़ी हुई ,तब पता चला ,मेरे एक भाई भी आया है। इससे मुझे क्या फर्क पड़ता ? जब मैंने उसे देखा ही नहीं ,खिलाया ही नहीं। मौसी के लिए भी ,लड़का देखा जाने लगा ,उनका विवाह भी तो होना है ,तब तक मैं पांचवी कक्षा में आ गयी थी।
हर बरस माता -पिता मुझसे मिलकर चले जाते ,धीरे -धीरे पता चला ,उनकी आर्थिक ,स्थिति ठीक नहीं है ,यानि वो लोग दूर शहर में मेरा खर्चा नहीं उठा पाएंगे ,दूर शहर में बहुत महंगाई है। कभी -कभी इच्छा तो होती कि मैं भी ,दूर शहर को देखने जाऊँ किन्तु कभी माता -पिता ने कहा ही नहीं। मैं अपनी सभी बातें अपने दोस्त बंसी से ही कहती ,बंसी मुस्कुराते हुए कहता -तुम क्यों फिक्र कर रही हो ? जब मैं बड़ा हो जाऊंगा ,तुम्हें शहर घुमाकर लाऊंगा और मैं ख्यालों में ही उसके संग जैसे सारी दुनिया घूम रही होती।
बंसी मेरा दोस्त !जो अब मुझसे बहुत लम्बा हो गया है ,गोरा -चिट्टा ,उन गढ़वाली कपड़ों में मुझे बड़ा फबता था ,उसके सुनहरे बाल ! मेरा दिल लुभाने के लिए काफी थे। वैसे भी मेरी दुनिया उसके इर्द -गिर्द ही तो घूमती थी ,बचपन भी हम दोनों ने साथ ही बिताया। वो पहाड़ियां ,खुला आकाश ,मैं और वो....... कभी -कभी हम छुपी -छुपाई खेलते ,कोई भी खेल खेलते किन्तु मुझे उससे छुपना और उसका मुझे ढूँढना बड़ा अच्छा लगता था। मौसी का विवाह हुआ ,मैंने बंसी से कहा -तू भी मुझसे विवाह करेगा।
हाँ ,करूंगा न..... दोनों साथ -साथ रहेंगे और खेलेंगे।
समय के साथ उम्र भी बढ़ रही थी ,हम दोनों ही दसवीं में आ गए थे ,किन्तु अब हमारे वो बचपन वाले खेल नहीं रहे। वो जब भी मेरा हाथ पकड़ता ,मेरा चेहरा शर्म से लाल हो जाया करता। वो कहता -जब तुम बाल खुले रखती हो ,ऐसा लगता है ,चाँद को बादलों ने घेर लिया हो। मेरे बचपन की कही बात उसे आज भी स्मरण थी ,कहता विवाह तो मुझसे ही करोगी न..... मैं शर्म से नजरें झुका लिया करती। उसके बिना एक पल भी सुहाता नहीं था। हम दोनों उन सुंदर वादियों में ,खो जाया करते और अपने जीवन के सपने सजाते। अभी भी मैं उससे छिप जाया करती और वो मुझे ढूँढता ,कई बार तो इसी ख़ुशी में मेरी जोरों से हंसी छूट जाती और वो मुझे कसकर अपनी बाँहों में भर लेता।
एक दिन मम्मी -पापा फिर से आये ,हर बरस ही आते हैं ,किन्तु आज मिलकर जाने के लिए नहीं आये ,वरन मुझे साथ ले जाने के लिए आये। इससे पहले कभी उन्होंने साथ चलने के लिए नहीं कहा किन्तु आज उनका इस तरह मुझे लेने आना अच्छा नहीं लगा। अपने बंसी को कैसे छोड़ दूँ ? सोचते ही आँखें बरसने को आतुर हो उठीं। मैंने बहाना बनाया नानी अकेली रह जाएगी किंतु नानी ने स्वयं ही कहा -अब मेरी उम्र बढ़ रही है ,इसके मामा का विवाह कर अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त होना चाहती हूँ।
अब किसी से क्या कहूं ?क्या बहाना बनाऊं ?एक बार बंसी से मिल लेती ,सोचकर अपने कपड़े थैले में भरे ,जब मैं आ रही थी ,बार -बार पीछे मुडकर देख रही थी किन्तु बंसी नहीं दिखा। जब बस में बैठी ,तब दूर से ही बंसी दौड़कर आता दिखलाई दिया। मैंने भी धीरे से उसे हाथ हिलाया। मेरा बचपन ,मेरा अल्हड़पन उन्हीं वादियों में कहीं छूट गया।मैं शहर में तो आ गई किन्तु ऐसा लगता -बंसी यहाँ आये और कहे -देख ज्योति ! मैं तेरे लिए यहाँ भी आ गया।उसने कोई वायदा नहीं किया तब भी ,मुझे उसकी प्रतीक्षा रहती। अपने माता -पिता के पास आकर भी ,मन तो मेरा वहीं रह गया। कुछ भी अच्छा नहीं लगता ,रह -रहकर जब उसकी याद आती ,दिल टूक -टूक होकर रो उठता। मम्मी -पापा के सामने खुश रहने का प्रयास करती किन्तु बंसी मेरे ख्यालों में मेरे करीब रहता।
एक दिन मुझे कुछ लोग देखने आये और साथ में वो लड़का भी जिससे मेरा विवाह तय हो गया ,मैंने कभी भी किसी से ,अपने बंसी का जिक्र नहीं किया। मुझे लगता वो ढूंढते हुए ,आएगा और अपने संग ले जायेगा। इतने बरसों पश्चात भी ,जब मुझे अपने बंसी की याद सताती है ,दिल से एक ही पुकार आती है -मुझे कब लेने आओगे ?तुम्हारी ज्योति इस दुनिया में कहीं गुम हो गयी है ,उसे ढूढ़ लो ! सुन लो ! उसकी पुकार..... लौटा दो वो मेरा पहला प्यार......