प्रेम और ध्यान
मैंने देखा, और मैं देखती रही / मैंने सुना, और मैं सुनती रही
मैंने सोचा, और मैं सोचती रही / द्वार खोलूँ या ना खोलूँ |
प्रेम खटखटाता रहा मेरा द्वार / और भ्रमित मैं बनी रही जड़
खोई रही अपने ऊहापोह में |
तभी कहा किसी ने / सम्भवतः मेरी अन्तरात्मा ने
तुम द्वार खोलो या ना खोलो / द्वार टूटेगा,
और प्रेम आएगा भीतर
कब, इसका भान भी नहीं हो पाएगा तुम्हें |
हाँ, यदि करती रही प्रयास इसे पाने का
गणनाएँ और मोल भाव
तो लौटना होगा रिक्त हस्त
क्योंकि रह जाएगा वह बाहर ही द्वार के |
क्या होगा, इसका प्रश्न क्यों ?
कब होगा, इसका विचार क्यों ?
कैसे होगा, इसका चिन्तन क्यों ?
कितना होगा, इसका मनन क्यों ?
छोड़ दो ये सारे प्रश्न, विचार, चिन्तन और मनन
प्रेम के प्रकाश को करने दो पार
सीमाएँ अपने समस्त तर्कों की
और तब, प्रेम बन जाएगा ध्यान |
ध्यान, जो तुम स्वयं हो
ध्यान, जो होगा तुममें
ध्यान, जो होगा तुम्हारे लिये
ध्यान, जो होगी तुम स्वयम् ||