जन्म से पुनर्जन्म – बात चल रही है शिशु के जन्म से पूर्व के संस्कारों की | तो इसे ही आगे बढाते हैं...
एक बात स्पष्ट कर दें, कि इस लेख की लेखिका यानी कि हम कोई वैद्य या डॉक्टर नहीं हैं, लेकिन वैदिक साहित्य के अध्येता – Vedic Scholar - अवश्य हैं, और ज्योतिष के ही समान आयुर्वेद भी क्योंकि वैदिक साहित्य का एक महत्त्वपूर्ण अंग है और ज्योतिष तथा आयुर्वेद परस्पर सम्बद्ध भी हैं - इसलिए आयुर्वेद से सम्बन्धित ग्रन्थों के अध्ययन में भी थोड़ी बहुत रूचि रही है | साथ ही मेरे पति डॉ दिनेश शर्मा एक आयुर्वेदिक चिकित्सक हैं तो उनके सान्निध्य में भी बहुत सी बातों पर चर्चा होती रहती है | और संस्कारों के आयोजनों के लिए ज्योतिष की गणनाओं के आधार पर मुहूर्त आवश्यक होते हैं | उन्हीं सब सूचनाओं के आधार पर कुछ लिखने का प्रयास कर रहे हैं |
स्वस्थ सुसंस्कृत युवक एवं युवती जब उचित आयु को प्राप्त हो जाएँ तो भली भाँति सोच विचार कर प्रसन्न मन तथा प्रेम-विश्वास से परिपूर्ण सन्तुष्ट हृदय के साथ उन्हें परिवार की वृद्धि हेतु गर्भाधान संस्कार करना चाहिए ऐसे वेदों में और वेदिकोत्तर साहित्य में प्रमाण उपलब्ध होते हैं | वैदिक संस्कृति के अनुसार विधिपूर्वक किया गया गर्भाधान संस्कार श्रेष्ठ गुण, कर्म, स्वभाववाली आत्मा को परिवार में आमन्त्रित करने के लिए धार्मिक और पवित्र यज्ञ के समान होता है | उस समय गर्भ के धारण तथा गर्भस्थ शिशु के शरीर की उचित वृद्धि और पोषण को ध्यान में रखते हुए आयुर्वेद के अनुसार पुरुष की न्यूनतम आयु 25 वर्ष तथा स्त्री की 16 वर्ष आवश्यक मानी जाती थी | जिस प्रकार अच्छे वृक्ष अथवा उत्तम कृषि के लिए उत्तम भूमि एवं बीज की आवश्यकता होती है उसी प्रकार उत्तम सन्तान के लिए माता पिता दोनों का मानसिक और शारीरिक रूप से परिपक्व होना आवश्यक था | साथ ही माता पिता दोनों के लिए ब्रह्मचर्य, उत्तम खान-पान व आहार विहार, स्वाध्याय, सत्संग, चिन्तन आदि नियमों का पालन करना भी आवश्यक था |
आयुर्वेद सम्बन्धी ग्रन्थों में इस विषय पर विशद वर्णन उपलब्ध होता है | ग्रन्थों में कहा गया है कि गर्भाधान की पुष्टि हो जाने के पश्चात पति-पत्नी शिशु के जन्म होने तक गर्भ को स्वस्थ रखने, पुष्ट रखने तथा उत्तम भावनाएँ और सम्वेदनाएँ गर्भस्थ शिशु तक प्रेषित करने के लिए स्वयं भी उसी प्रकार का आचरण करें तथा सन्तुलित और पौष्टिक भोजन ग्रहण करें | भोजन ऋतुओं के अनुकूल होना चाहिए | गर्भधारण के पश्चात 9 महीने तक 'गर्भिणी परिचर्या' तथा 'सूतिका परिचर्या' अर्थात गर्भिणी की देख भाल के नियमों का पालन करना भी आवश्यक है, क्योंकि इस अवस्था में लापरवाही से गर्भस्राव, गर्भपात अथवा रक्तस्राव जैसी समस्याएँ भी उत्पन्न हो सकती हैं | गर्भस्थ शिशु अपनी इच्छाओ, भावनाओं तथा सम्वेदनाओं को माता के द्वारा प्रकट करता है, अतः उसकी इच्छाओं की पूर्ति और उसकी भावनाओं और सम्वेदनाओं का ध्यान रखना भी आवश्यक है अन्यथा शिशु में जन्मजात शारीरिक अथवा मानसिक विकृतियाँ उत्पन्न हो सकती हैं | यदि किसी महिला को बार बार गर्भपात होता है तो उसके लिए गर्भ को सुरक्षित रखने की औषधियों का भी वर्णन उपलब्ध होता है – जैसे ब्राम्ही, शतावरी, दूर्वा, पाटला इत्यादि | चिकित्सक – Gynaecologist - की देख रेख में इन औषधियों का उपयोग करना चाहिए |
इस प्रकार व्यावहारिक रूप से देखा जाए तो गर्भाधान संस्कार आज के ही समान उस समय भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण संस्कार था | और हमारा मानना है कि आज भी यदि उन समस्त नियमों का पालन किया जाए तो गर्भ से सम्बन्धित बहुत सी समस्याओं से मुक्ति प्राप्त हो सकती है |
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http://www.astrologerdrpurnimasharma.com/2018/06/26/samskaras-4/