जन्म से पुनर्जन्म – गर्भ संस्कारों में गर्भाधान संस्कार से अगले चरण पुंसवन संस्कार की चर्चा हम कर रहे हैं | जैसा कि सभी जानते हैं, जन्म से पूर्व किये जाने वाले संस्कारों में पुंसवन संस्कार का विशेष महत्त्व माना जाता है और यह गर्भ के तीसरे माह में ज्योतिषी से अच्छे शुभ मुहूर्त का निश्चय कराकर यह संस्कार सम्पन्न किया जाता है क्योंकि इस माह में शिशु का आकार और भावनाएँ तथा संस्कार अपना स्वरूप ग्रहण करने लगते हैं | अतः उनके आध्यात्मिक उपचार की दृष्टि से यह कर्म किया जाता था और इसीलिए ज्योतिष के आधार पर शुभ मूहूर्त निकलवाना आवश्यक होता था | कर्मकाण्ड की समग्र प्रक्रिया के साथ यह संस्कार किया जाता है, जो आज के भाग दौड़ के युग में सम्भव है हास्यास्पद प्रतीत हो | अतः कर्मकाण्ड की बात जाने देते हैं | बात करते हैं इस संस्कार की निहित भावना की |
भाव यही था कि माता पिता तथा परिवार के सभी सदस्य गर्भ के महत्त्व को समझ सकें ताकि गर्भस्थ शिशु माता-पिता, कुल, परिवार तथा समाज के लिए गर्व का कारण बन सके | इस संस्कार के माध्यम से माता-पिता तथा गर्भिणी की देखभाल करने वाले परिजनों को यह समझाया जाता था कि गर्भिणी के लिए अनुकूल वातावरण, खान-पान तथा आचार-विचार आदि का निर्धारण किस प्रकार किया जाए ताकि सुसंस्कृत शिशु का जन्म हो |
इस संस्कार के समय अन्य पूजा पाठ यज्ञ आदि के साथ साथ वट वृक्ष की जटाओं के कोमल अग्रभाग का छोटा सा टुकड़ा, गिलोय और पीपल के कोमल पत्ते एक निश्चित अनुपात में लाकर उनमें थोड़ा थोड़ा पानी डालते हुए सिल पर उन्हें पीसा जाता था और उस घोल को एक कटोरी में भरकर गर्भिणी को सूँघने और पीने के लिए दिया जाता था | इस क्रिया के द्वारा माता इन समस्त औषधियों के गुणों को आत्मसात कर लेती थी जिनके द्वारा बालक के संस्कार पनपते थे | वट वृक्ष विशालता तथा दृढ़ता का प्रतीक माना जाता है | इसकी वृद्धि धीरे धीरे होती है और इस प्रकार शनै: शनै: वृद्धि प्राप्त करते हुए यह वृक्ष धैर्य का प्रतीक भी बन जाता है | कालान्तर में इसकी जटाएँ भी जड़ और तनों में परिणत हो जाती हैं और इस प्रकार यह केवल वृद्धि का ही प्रतीक भर नहीं रह जाता अपितु पुष्टि का भी प्रतीक बन जाता है | वट वृक्ष प्रतीक है इस तथ्य का कि वृद्धावस्था में भी यदि व्यक्ति स्वस्थ रहे तो उसकी वृद्धावस्था पुनः यौवन में परिणत हो सकती है और यह क्रम इसी प्रकार गतिमान रह सकता है | साथ ही माना जाता है कि वट वृक्ष के इस रस में सामर्थ्य है कि यह गर्भ को किसी प्रकार की हानि से – Abortion से बचाता है | सुश्रुत का कहना है कि वट वृक्ष किसी भी प्रकार के अनिष्ट से गर्भ की रक्षा करने की सामर्थ्य रखता है |
गिलोय की प्रवृत्ति है ऊपर चढ़ने की – आरोहण की | साथ ही यह हानिकारक कीटाणुओं का नाश करने वाली औषधि है | अतः शरीर के रोगाणुओं के साथ साथ मन के भी समस्त प्रकार के दुर्भावों का – समस्त निराशाओं आदि का भी नाश करने की सामर्थ्य इसमें है | यह शरीर को पुष्ट करती है तथा प्राण ऊर्जा में वृद्धि करती हुई सत्प्रवृत्तियों के पोषण की सामर्थ्य उत्पन्न करती है | आपने देखा भी होगा पिछले कुछ समय से जब भी डेंगू या चिकनगुनिया जैसे रोगों ने जोर पकड़ा है तब तब गिलोय का काढ़ा पीने या गोली खाने की सलाह दी जाती है |
पीपल देवयोनि का वृक्ष माना जाता है | वास्तविक देवत्व क्या है – धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष की सिद्धि के द्वारा परमार्थ की सिद्धि | इस प्रकार परमार्थ के संस्कारों को वरण करके उनका विकास करना भी इस क्रिया का उद्देश्य है |
इन तीनों औषधियों का रस गर्भिणी को पीने और सूँघने के लिए दिया जाता था | साथ ही चरक के अनुसार दूध में घी और शहद का एक निश्चित विषम अनुपात में मिश्रण भी गर्भिणी के लिए मुख्या भोजन के रूप में दिया जाता था | “ॐ अद्भ्यः सम्भृतः पृथिव्यै रसाच्च, विश्वकर्मणः समर्वत्तताग्रे। तस्य त्वष्टा विदधद्रूपमेति, तन्मर्त्यस्य देवत्वमाजानमग्रे॥“ साथ ही, गायत्री के मन्त्रोच्चार से गुँजित दिव्य वातावरण इस क्रिया को और भी अधिक आनन्ददायक बना देता था |
इसके साथ ही जल से पूर्ण पात्र गर्भवती की गोद में दिया जाता था, जो प्रतीक था इस बात का कि बहुत शीघ्र माँ की गोद में एक स्वस्थ- संस्कारयुक्त हृष्ट पुष्ट बालक आने वाला है | इस पात्र को गर्भ से स्पर्श कराने का एक अभिप्राय यह भी था कि गर्भस्थ शिशु स्वयं को सुरक्षित, स्वस्थ और शक्तिशाली अन्य्भव करे तथा किसी भी प्रकार की गर्भपात आदि की समस्या उत्पन्न न होने पाए और शिशु के मन से हर प्रकार का भी समाप्त हो जाए ताकि वह अपनी माता तथा परिजनों पर पूर्ण विश्वास रखता हुआ सरलता से गर्भ से बाहर आ सके...
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