सार्वभौम धर्म और मानव कल्याण
“ध्रियते लोकोऽनेन, वा धारयतीति धर्मः |”
अभी श्राद्ध पक्ष चल रहा है | पूरा आश्विन मास ही धर्म और व्रतोत्सव आदि का माह है | धर्म क्या है इस विषय में प्रायः हर कोई जिज्ञासु रहता है, क्योंकि परम सत्य के ज्ञान की ओर सभी की प्रवृत्ति होती है और धर्म इसी परम सत्य के ज्ञान का एक साधन माना जाता है | निश्चित रूप से प्रत्येक व्यक्ति को अपने अपने धर्म का पालन करना चाहिए – जैसा कहा भी गया है “स्वधर्मे निधनं श्रेयं परधर्मे भयावह” | किन्तु मनुष्य मात्र के धर्म के मार्ग पर चलने की इसी लालसा के कारण कहीं कोई तथाकथित “धर्मगुरु” भाँति भाँति के आडम्बर अपनाने की सलाह अपने शिष्यों को देते दीख पड़ते हैं | कहीं कुछ धर्मगुरु स्वयं को “भगवान” तक घोषित कर देने में किसी प्रकार का संकोच नहीं करते | तरह तरह के रूप धर कर भोले भाले भक्तों की आस्था का मखौल उड़ाकर उन्हें ठगते हैं | कहीं धर्म पालन के नाम पर तो कहीं जाति के आधार पर छुआ छूत को प्रोत्साहन दिया जाता है | कहीं व्यक्तिगत शत्रुता निकालने के लिये या किसी अन्य लालच के कारण धर्म के नाम पर और भी अनेक प्रकार के अनाचार होते दीख पड़ते हैं | कहीं कट्टरवाद को प्रोत्साहन दिया जाता है और “दूसरे” धर्मावलम्बियों के साथ आक्रामक व्यवहार किया जाता है | जब इतना सब होता देखते हैं तो सोचने पर विवश हो जाते हैं कि क्या यही सब कहलाता है धर्माचार ? क्या हमारे ऋषि मुनियों की धर्म की अवधारणा यही थी | क्या दूसरों को कष्ट पहुँचाना अथवा दूसरों के साथ छल करना, दूसरों को धोखा देना, असत्य भाषण करना अथवा कट्टरवादिता – यही सब है धर्म का लक्ष्य है ?
यदि नहीं, तो फिर धर्म है क्या ? धर्म का लक्ष्य क्या है ? तत्ववेत्ता धर्मगुरु किसे कहा जाना चाहिये ? निश्चित रूप से इन प्रश्नों का उत्तर खोजना कोई सरल कार्य नहीं है | क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति इन प्रश्नों का उत्तर अपनी अपनी रूचि, अपनी सुगमता तथा धर्म पालन की अपनी अपनी सामर्थ्य के अनुसार देगा | किन्तु वास्तव में देखा जाए तो इन प्रश्नों का एक ही उत्तर है कि परमात्मा के तत्व को यथार्थ रूप में जानने वाले तत्ववेत्ता महापुरुषों द्वारा दी गई जन कल्याणकारी शिक्षा ही धर्म है | तथा धर्म का अन्तिम लक्ष्य है प्राणिमात्र का कल्याण | गीता में इन महापुरुषों के लक्षण बताते हुए लिखा है :
“अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च | निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी |
सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः | मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः ||” गीता 12/13,14
अर्थात, द्वेष भाव एवं स्वार्थ से रहित, सबमें स्नेह करने वाला, दयालु, अनासक्त, अहंकार से रहित, सुख दुःख में समान, क्षमावान, योगी, यती, दृढ़निश्चयी तथा ईश्वरार्पित बुद्धि वाला मनुष्य ही तत्वज्ञ महापुरुष है | साथ ही :
समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः, तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः |
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः, सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः स उच्यते ||” गीता 14/24,25
अर्थात, जो आत्मभाव में स्थित रहकर सुख दुःख को समान समझता है तथा मिट्टी पत्थर और स्वर्ण में भी समता का भाव रखता है, जो धैर्यवान है, प्रिय और अप्रिय को बराबर समझता है, जो अपनी निंदा स्तुति में भी समान भाव रखता है, मान और अपमान में भी जो सम है, शत्रु और मित्र में भी जो समता का व्यवहार करता है तथा जो कार्य करते समय इस बात का
अभिमान नहीं करता कि यह कार्य तो मैंने किया है वही पुरुष महापुरुष कहलाता है | उसी को तत्वज्ञान होता है | ऐसे ही पुरुषों के द्वारा दी गई शिक्षा धर्म कहलाती है |
धर्म का चरम लक्ष्य होता है संसार को हर प्रकार के ताप से मुक्त कर उसे अनन्त सुख की अन्तिम सीमा तक पहुँचाकर सदा के लिये आनन्दमय बना देना | जिस धर्म का लक्ष्य इतना पावन है, इतना विशाल है – उस धर्म में कट्टरवाद के लिये तो कोई स्थान रह ही नहीं जाता | फिर क्या कारण है कि आज मनुष्य धर्म के नाम पर अनेक प्रकार के झगड़ों में उलझा रहता है ? यहाँ तक कि एक ही धर्म की विभिन्न शाखाओं के अनुयायी तथाकथित कट्टरवाद के नाम पर एक दूसरे को नीचा दिखाने का प्रयत्न करते रहते हैं | और इसी प्रयत्न के चलते अराजकता, व्यभिचार और भ्रष्टाचार का साम्राज्य चारों ओर फैलता जाता है | इस स्थिति में क्या कोई भी सुखी और शान्तिपूर्ण जीवन व्यतीत कर सकता है ? वास्तविकता तो यही है कि हम धर्म के उस उदात्त और पावन लक्ष्य को भूल चुके हैं जो हमारी भारतीय संस्कृति का मूलाधार था और जिसके लिये कहा गया था कि “अस्य देश प्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवा: |” धर्म के उस महान लक्ष्य से च्युत होकर धर्म को हमने सामन्तवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद, अर्थवाद, राजनीतिवाद आदि के साथ जोड़ दिया है | हमारे “धर्मगुरु” भी इन्हीं सब बातों में उलझ कर रह गए हैं |
धर्म के विषय में स्मृतियों, पुराणों, उपनिषदों आदि में पृथक पृथक परिभाषाएँ प्राप्त होती हैं, किन्तु अन्ततोगत्वा वे सभी परिभाषाएँ धर्म के उसी आदर्श का मार्ग प्रशस्त करती हैं जिसके अनुसार प्राणिमात्र को कल्याण की प्राप्ति हो | गीता में कहा गया है :
“अभयं सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः, दानं दमश्च यज्ञश्च स्वाध्यायस्तप आर्जनम् ||
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपेशुनम्, दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ||
तेजः क्षमा धृतिः शोचमद्रोहो नातिमानिता, भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत ||” गीता 16/1-3
अर्थात, सर्वथा भय का अभाव, आन्तरिक स्वच्छता, ज्ञान योग में दृढ़ स्थिति, इन्द्रियदमन, यज्ञ, स्वाध्याय, तप, सत्य – अन्तःकरण तथा इन्द्रियों द्वारा जो कुछ सोचा अथवा अनुभव किया गया उसी का कथन सत्य कहलाता है, अक्रोध, त्याग, शान्ति, मन वाणी अथवा कर्म से किसी को भी कष्ट न पहुँचाना, कर्तापन के अभिमान का त्याग, प्राणिमात्र में फल की भावना के बिना दयाभाव, अनासक्ति, लोक व शास्त्र विरुद्ध आचरण में लज्जा, तेज, क्षमा तथा धृति ये सब भीतर और बाहर दोनों की शुद्धि है | सत्यता पूर्वक शुद्ध व्यवहार से द्रव्य की, उस द्रव्य से प्राप्त अन्न से आहार की, तथा उत्तम आहार से विचारों के शुद्ध हो जाने के कारण यथायोग्य व्यवहार से आचरण की शुद्धि बाह्य शुद्धि है | तथा राग द्वेष और कपट आदि विकारों का नाश करके अन्तःकरण की शुद्धि भीतरी शुद्धि है | ये सभी दैवी सम्पदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण हैं | वस्तुतः आचरण ही धर्म का मूलभूत कारण है | इसी कारण मनु ने कहा है “आचारहीनं न पुनन्ति देवाः |” मनुस्मृति में लिखा है “धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं
शौचामिन्द्रियनिग्रह:, धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् |” – मनु. 6/12 इसी प्रकार “अहिंसा सत्यास्तेय ब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमा:” – योग. 2/30
अहिंसा, सत्य भाषण, चोरी न करना, ब्रह्मचर्य का पालन और भोग सामग्रियों का संचय न करना – ये पाँच यम हैं, तथा बाहर भीतर की पवित्रता, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और सर्वस्व ईश्वर के अर्पण करना – ये पाँच नियम हैं | इन सबका निष्काम भाव से पालन करना ही सच्चा धर्माचरण है | मनु के अनुसार वाचिक, शारीरिक और मानसिक पाप धर्म विरुद्ध आचरण हैं | ये तीनों ही पाप दु:खों का कारण बनते हैं | इसीलिए श्रीमद्भगवद्गीता में कथन है “त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः, कामक्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् |” – गीता 16/21 अर्थात काम, क्रोध और लोभ ये तीनों मनुष्य के शत्रु हैं और नरक के द्वार हैं, अतः इन्हें त्यागना चाहिये | याज्ञवल्क्य ने भी लिखा है “विहितस्याननुष्ठानात् निन्दितस्य च सेवनात्, अनिग्रहाच्चेन्द्रियाणाम् नरः पतनमृच्छति |” अर्थात, धर्मानुरूप कर्मों का त्याग तथा निन्दनीय कर्मों के करने से मनुष्य का पतन होता है | धर्मपरायण व्यक्ति से ईश्वर स्वयं ही स्नेह करता है |
इस प्रकार कथनान्तर से सभी स्मृति पुराण उपनिषदों आदि में उसी व्यवहार को धर्म की संज्ञा दी गई है जिससे सत्त्वगुण की वृद्धि हो, अन्तःकरण की शुद्धि हो, तथा दिव्य गुणों का विकास हो | अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वरभक्ति, सदसत् का यथार्थ ज्ञान, वैराग्य, मन व इन्द्रियों को वश में रखना, सहनशीलता, श्रद्धा, क्षमा, वीरता, दया, तेज – उस शक्ति को प्राप्त करने का प्रयत्न करना जिसके प्रभाव से विषयासक्त नीचप्रकृति व्यक्ति भी पापाचरण से हटकर श्रेष्ठ कार्य में लग जाएँ, सरलता, स्वार्थत्याग, ढोंग न करना, किसी की निंदा या चुगली न करना, निष्कपटता, विनय, धैर्य, नि:स्वार्थ सेवा, निर्वैरता तथा निर्भयता, समता, निरहंकारता, मैत्री, दान, कर्तव्यपरायणता, शान्ति – इच्छा और वासनाओं का अभाव होकर अन्तःकरण में निरन्तर प्रसन्नता का भाव रहना – इन्हें सभी ने धर्म माना है | इन्हीं के पालन से प्राणिमात्र का कल्याण संभव है | इन्हीं के पालन से परम पद की प्राप्ति तथा अलौकिक अभ्युदय के साथ साथ मुक्ति रूप परम कल्याण की प्राप्ति होती है | ऐसे ही पुरुषों के लिये कहा गया है “वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः, एतच्चतुर्विघं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम् |” मनु. 2/12
आज हम अपने इस चिरकालीन धर्म के आदर्श को भूल चुके हैं | ऐहिक सुखों के पीछे पागल हो रहे हैं | आज हमने केवल भौतिक सुखों को ही धर्म का ध्येय मानने वाले मतों का अनुसरण आरम्भ कर दिया है | परमानन्द प्राप्ति के लक्ष्य को भूलकर हम केवल विविध भोगों की प्राप्ति के प्रयत्न को ही अपना कर्तव्य समझ बैठे हैं | हममें से अधिकाँश तो धन, नाम और यश प्राप्ति में ही अपना दुर्लभ और अमूल्य जीवन नष्ट कर देते हैं | जो उचित नहीं है – देश, जाति तथा समाज के लिये दुर्भाग्यपूर्ण है |
अस्तु; अपनी बुद्धि से लोक कल्याणार्थ धर्म का पालन ही श्रेयस्कर है | हमें समस्त प्रकार के दिखावे, ढोंग, आडम्बरों का त्याग करके पुनः उसी धर्म के आदर्श का स्मरण करके, उसके महत्व को भली भाँति समझ कर उसका पालन करने की आवश्यकता है | तभी हमें सच्चा आनन्द और शान्ति प्राप्त हो सकती है | धर्म की उस भावना को स्मरण करके ही हम प्राणिमात्र का तथा स्वयं का भी कल्याण कर सकते हैं | केवल ऐहिक सुख बताने वाला धर्म वास्तविक धर्म हो ही नहीं सकता | अतः सार्वभौम धर्म वही है जिसके पालन से मानव को महान से महान नित्य और निर्बाध आनन्द की प्राप्ति हो, जिसके
द्वारा मानवमात्र का कल्याण हो और जिसमें सबका अधिकार हो |