सावन के झूले
कल हरियाली तीज – जिसे मधुस्रवा तीज भी कहा जाता है – का उमंगपूर्ण त्यौहार है, जिसे उत्तर भारत में सभी महिलाएँ बड़े उत्साह से मनाती हैं और आम या नीम की डालियों पर पड़े झूलों में पेंग बढ़ाती अपनी महत्त्वकांक्षाओं की ऊँचाईयों का स्पर्श करने का प्रयास करती हैं | सर्वप्रथम, सभी को सावन की मस्ती में भीगे हरियाली तीज के मधुर पर्व की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ... हम सभी ऊपर नीचे जाते आते झूलों की पेंगों के साथ ही अपने मनोरथों और महत्त्वाकांक्षाओं को इतनी ऊँचाईयों तक पहुँचाएँ जहाँ पहुँच कर उनके पूर्ण होने में कोई सन्देह न रह जाए...
कभी अपने पुराने दिनों की याद करते हैं तो ध्यान आता है कि कई रोज़ पहले से बाज़ारों में घेवर फेनी मिलने शुरू हो जाया करते थे | बेटियों के घर घेवर फेनी तथा दूसरी मिठाइयों के साथ वस्त्र और श्रृंगार की सामग्री लेकर भाई जाया करते थे जिसे “सिंधारा” कहा जाता था | बहू के मायके से आई मिठाइयाँ जान पहचान वालों के यहाँ “भाजी” के रूप में भिजवाई जाती थीं | और इसके पीछे भावना यही रहती थी कि अधिक से अधिक लोगों का आशीर्वाद तथा शुभकामनाएँ मिल सकें | यों तो सारा सावन ही घरों व में लगे आम और नीम आदि के पेड़ों पर झूले लटके रहते थे और लड़कियाँ गीत गा गाकर उन पर झूला करती थीं | पर तीज के दिन तो एक एक घर में सारे मुहल्ले की महिलाएँ और लड़कियाँ हाथों पैरों पर मेंहदी की फुलवारी खिलाए, हाथों में भरी भरी चूड़ियाँ पहने सज धज कर इकट्ठी हो जाया करती थीं दोपहर के खाने पीने के कामों से निबट कर और फिर शुरू होता था झोंटे देने का सिलसिला | दो महिलाएँ झूले पर बैठती थीं और बाक़ी महिलाएँ गीत गाती उन्हें झोटे देती जाती और झूला झूलने के साथ साथ चुहलबाज़ी भी चलती रहती | सावन के गीतों की वो झड़ी लगती कि समय का कुछ होश ही नहीं रहता | पुरुष भी कहाँ पीछे रह सकते थे, महिलाओं के साथ झूले पर ठिठोली करने का ऐसा “हरियाला” अवसर भला हाथ से कौन जाने देता...? वक़्त जैसे ठहर जाया करता था इस मादक दृश्य का गवाह बनने के लिये |
श्रावण मास में जब समस्त चराचर जगत वर्षा की रिमझिम फुहारों में सराबोर हो जाता है, इन्द्रदेव की कृपा से जब मेघराज मधु के समान जल का दान पृथिवी को देते हैं और उस अमृतजल का पान करके जब प्यासी धरती की प्यास बुझने लगती है और हरा घाघरा पहने धरती अपनी इस प्रसन्नता को वनस्पतियों के लहराते नृत्य द्वारा जब अभिव्यक्त करने लगती है, जिसे देख जन जन का मानस मस्ती में झूम झूम उठता है तब उस उल्लास का अभिनन्दन करने के लिये, उस मादकता की जो विचित्र सी अनुभूति होती है उसकी अभिव्यक्ति के लिये “हरियाली तीज” अथवा “मधुस्रवा तीज” का पर्व मनाया जाता है | “मधुस्रवा अथवा मधुश्रवा” शब्द का अर्थ ही है मधु अर्थात अमृत का स्राव यानी वर्षा करने वाला | अब गर्मी से बेहाल हो चुकी धरती के लिए भला जल से बढ़कर और कौन सा अमृत हो सकता है ? वैसे भी जल को अमृत ही तो कहा जाता है |
मान्यता है कि पर्वतराज हिमालय की पुत्री पार्वती ने जब सौ वर्ष की घोर तपस्या करके शिव को पति के रूप में प्राप्त कर लिया तो श्रावण शुक्ल तृतीया को ही शिव के घर में उनका पदार्पण हुआ था | सम्भवतः यही कारण है कि इस दिन सौभाग्यवती महिलाएँ अपने सौभाग्य अर्थात पति की दीर्घायु की कामना से तथा कुँआरी कन्याएँ अनुकूल वर प्राप्ति की कामना से इस पर्व को मनाती हैं | अर्थात श्रावण मास का, वर्षा ऋतु का, मानसून का अभिनन्दन करने के साथ साथ शिव पार्वती के मिलन को स्मरण करने के लिये भी इस हरियाली तीज को मनाया जाता है |
तो आइये हम सब भी मिलकर अभिनन्दन करें इस पर्व का तथा पर्व की मूलभूत भावनाओं का सम्मान करते हुए सावन की मस्ती में डूब जाएँ... क्योंकि जब सारी पृकृति ही मदमस्त हो जाती है वर्षा की रिमझिम बूँदों का मधुपान करके तो फिर मानव मन भला कैसे न झूम उठेगा……… क्यों न उसका मन होगा हिंडोले पर बैठ ऊँची ऊँची पेंग बढ़ाने का……..
मेघों ने बाँसुरी बजाई, झूम उठी पुरवाई रे |
बरखा जब गा उठी, प्रकृति भी दुलहिन बन शरमाई रे ||
उमड़ा स्नेह गगन के मन में, बादल बन कर बरस गया
प्रेमाकुल धरती ने नदियों की बाँहों से परस दिया |
लहरों ने एकतारा छेड़ा, कोयलिया इतराई रे
बरखा जब गा उठी, प्रकृति भी दुलहिन बन शरमाई रे ||
बूँदों के दर्पण में कली कली निज रूप निहार रही
धरती हरा घाघरा पहने नित नव कर श्रृंगार रही |
सजी लताएँ, हौले हौले डोल उठी अमराई रे |
बरखा जब गा उठी, प्रकृति भी दुलहिन बन शरमाई रे ||
अँबुवा की डाली पे सावन के झूले मन को भाते
हर इक राधा पेंग बढ़ाए, और हर कान्हा दे झोंटे |
हर क्षण, प्रतिपल, दसों दिशाएँ लगती हैं मदिराई रे
बरखा जब गा उठी, प्रकृति भी दुलहिन बन शरमाई रे ||