संवर और सुगन्धि दशमी
यथा सुगुप्तसुसंवृतद्वारकवाटं पुरं सुरक्षितं दुरासादमारातिभिर्भवति, तथा सुगुप्तिसमितिधर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रात्मन:
सुसंवृतेंद्रियकषाययोगस्य अभिनवकर्मागमद्वारसंवरणात् संवर: |
अर्थात जिनके द्वारा कर्मों को रोका जा सके वे द्वार संवर कहलाते हैं | जैसे जिस नगर के द्वार भली भाँति बन्द कर दिए गए हों वह शत्रु के लिए आगामी हो जाता है, उसी प्रकार गुप्ति अर्थात मन, वचन व काय की प्रवृत्ति का निरोध करके मात्र ज्ञाता, दृष्टा भाव से निश्चयसमाधि धारना, समिति अर्थात चलने-फिरने में, बोलने-चालने में, आहार ग्रहण करने में, वस्तुओं को उठाने और रखने में तथा अन्य अनेक प्रकार के कर्म करते समय यत्नपूर्वक सम्यक् प्रकार से प्रवृत्ति करते हुए जीवों की रक्षा करना, धर्म, अनुप्रेक्षा अर्थात मनन अथवा चिन्तन, परीषहजय अर्थात दुःख सुख में समभाव रहना और चरित्र से जिसने इन्द्रियकषाय से अपनी आत्मा की संवृत्ति कर ली है – नवीन कर्मों के द्वार बन्द कर लिए हैं - वही संवर कहलाता है |
आप सोचेंगे कि संवर की व्याख्या अज किसलिए की | तो, जैन मतावलम्बियों के पर्यूषण पर्व चल रहे हैं और इन्हीं पर्वों के
अन्तर्गत कल एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण पर्व है – सुगन्ध दशमी – जिसे आम भाषा में धूप दशमी भी कहा जाता है | जैन मान्यताओं के अनुसार पर्यूषण पर्व के अन्तर्गत आने वाली भाद्रपद शुक्ल दशमी अर्थात सुगन्ध दशमी का विशेष महत्त्व है | दशमी तिथि आज प्रातः 11:18 के लगभग आरम्भ हो चुकी है और कल प्रातः 9:35 के लगभग समाप्त हो जाएगी | अतः सुगन्ध दशमी का पर आज ही से अनेक स्थानों पर आरम्भ हो चुका होगा और जैन कैलेण्डर के अनुसार जिसका समापन कल किया जाएगा | मान्यता है कि इस व्रत को विधिपूर्वक करने से मनुष्य के समस्त अशुभ कर्मों का क्षय होकर पुण्यबन्ध का निर्माण होता है तथा उन्हें मोक्ष अथवा निर्वाण की प्राप्ति होती है | इस अवधि में जैन समुदाय जैन मन्दिरों में जाकर सभी तीर्थंकरों को धूप अर्पण करते हैं | इसे धूप खैवन भी कहा जाता है | कई मन्दिरों में मण्डल विधना बनाए जाते हैं, कई स्थानों पर झाँकियाँ सजाई जाती हैं | साथ ही सभी जिनालयों को सजाया जाता है | इस अवसर पर पञ्चपापों – हिंसा, असत्य,
चोरी, कुशील तथा परिग्रह – का त्याग कर ईश्वराधन, स्वाध्याय, धर्म चिन्तन, कथा श्रवण तथा सामयिक अर्थात आत्मस्थ होकर समभाव की साधना (जैन आगमों के अनुसार दो घड़ी अर्थात लगभग अड़तालीस मिनट तक समतापूर्वक शान्त भाव से किया गया ध्यान सामयिक कहलाता है तथा यह गृहस्थ और सन्यासियों सभी के लिए अनिवार्य होता है) आदि में समय व्यतीत किया जाता है | तीर्थंकरों से प्रार्थना की जाती है कि जिस प्रकार सुगन्धि अर्पण करके हमारा मन हर्षित प्रफुल्लित हो गया है उसी प्रकार इस सुगन्धि के पवित्र तथा आनन्ददायक वातावरण से प्रसन्न होकर आप हमें उत्तम मार्ग के दर्शन कराएँ | सकल दिशाओं में सुगन्धित द्रव्यों की सुगन्धि प्रसारित होने से जिस प्रकार सभी प्रकार की दुर्गन्ध और कीटाणुओं आदि का नाश हो जाता है उसी प्रकार इस सुगन्धि से सुवासित होकर हमारा शरीर स्वस्थ बना रहे ताकि हम धर्म का आचरण पूर्ण निष्ठा के साथ कर सकें |
धूप प्रज्वलन करके वातावरण को सुवासित करने की प्रक्रिया वास्तव में सिद्धि विधान के संवर तत्व का ही प्रतिनिधित्व करती है | लेख के आरम्भ में उपरोक्त श्लोक को लिखने का अभिप्राय इसी संवर तत्व के विषय में वार्ता करना है जो एक प्रकार से सुगन्ध पर्व का एक विशेष अंग है | जैन दर्शन के अनुसार संवर एक तत्त्व है | संवर के मार्ग से होकर ही निर्जरा तक पहुँच कर सिद्धि प्राप्त की जा सकती है | संवर का अर्थ होता है कर्मों के आस्रव को रोकना |
वास्तव में जैन तत्त्व मीमांसा सात (कभी-कभी नौ, उपश्रेणियाँ मिलाकर) सत्य अथवा मौलिक सिद्धान्तों पर आधारित है, जिन्हें तत्त्व कहा जाता है | यह मानव जन्म दुर्गति की प्रकृति और उसका निदान करने का प्रयास है | प्रथम दो सत्यों के अनुसार, यह स्वयंसिद्ध है कि जीव और अजीव का अस्तित्व है | तृतीय सत्य है कि दो पदार्थों जीव और अजीव के मेल से – जिसे योग कहा जाता है - कर्म रूपी द्रव्य जीव में प्रवाहित होता रहता है | यह जीव के साथ साथ रहता है और पुनः पुनः कर्म में परिवर्तित होता रहता है | चतुर्थ सत्य बन्ध का कारक है, जो जीव के मूलभूत स्वभाव चेतना की अभिव्यक्ति को सीमित करता है | पञ्चम सत्य बताता है कि नवीन कर्मों के प्रवाह को यदि अवरुद्ध करना है तो संवर अर्थात सम्यक्चरित्र, सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान के अनुशीलन से आत्मसंयम का अभ्यास आवश्यक है | गहन आत्मसंयम द्वारा वर्तमान कर्मों को भी जलाकर भस्म किया जा सकता इस छठे सत्य को "निर्जरा" शब्द द्वारा व्यक्त किया गया है | अन्तिम सत्य है कि जब जीव कर्मों के बन्धन से मुक्त हो जाता है, तो मोक्ष अथवा निर्वाण को प्राप्त हो जाता है, जो जैन दर्शन का चरम लक्ष्य है | किसी न किसी रूप में लगभग सभी भारतीय दर्शनों के मूल में यही सारे सिद्धान्त निहित हैं |
इस प्रकार सरल शब्दों में कहें तो जैन सिद्धान्त के सातों तत्वों में से चार तत्त्व- आस्रव, बन्ध, संवर और निर्जरा कर्म सिद्धान्त के स्तम्भ हैं | संवर रूपी धूप का तत्व जब प्रकट हो जाता है तब इसकी सुगन्धि से अष्ट कर्म रूपी कष्ट आत्मा के निकट नहीं आने पाते | आशय यही है कि केवल धूप को अग्नि में जलाना ही पर्याप्त नहीं है, अपितु निज में निज की ही शक्ति की ज्वाला से राग द्वेष का नाश करना आवश्यक है |
सुगन्धि दशमी को कुछ स्थानों पर सुहाग दशमी के नाम से भी मनाया जाता है और जिस प्रकार करवा चौथ के व्रत में महिलाएँ आकर्षक वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर पति की दीर्घायु और उत्तम स्वास्थ्य के लिए व्रत रखती हैं उसी प्रकार सुगन्ध दशमी के दिन जैन महिलाएँ भी व्रत करती हैं और अपने पति के उत्तम स्वास्थ्य तथा दीर्घायु के लिए प्रार्थना करती हैं |
चाहे इस पर्व को सुहाग दशमी के रूप में मनाया जाए अथवा सुगन्धि दशमी के रूप में, मूल भावना तो यही है कि संवर तत्व कर्म क्षय करने की दिशा में प्रथम प्रयास है | यह संसार सागर समान है और जीव आत्मा इसमें बहती नाव के समान है जो इस सागर को पार करना चाहती है | इस नाव में कहीं छोटा सा भी छिद्र हो जाए तो कर्म रूपी जल का आगमन होता रहता है | उस छिद्र को बन्द करना संवर है | संवर के पश्चात् ही कर्मों की निर्जरा होती है अर्थात कर्मों का नाश होता है | अस्तु सभी संवर सहित तप का आचरण करें ताकि जीवन भर धूप की भाँति संवर तत्त्व से महकते रहें इसी मंगल भावना के साथ सभी को सुगन्धि दशमी की हार्दिक
शुभकामनाएँ...