तुम अच्छी हो – श्रेष्ठ औरों से
सीमित
है मेरा संसार, एक छोटे से अन्धकारपूर्ण कक्ष तक...
जब नहीं होता समाधान किसी समस्या का मेरे पास
बैठ जाती हूँ अपने इसी अँधेरे कक्ष में
आँसू की गर्म बूँदें ढुलक आती हैं मेरे
गालों पर
मेरी छाती पर, मेरे
हृदय पर...
जानती हूँ मैं, कोई
नहीं है वहाँ मेरे लिये
जानती हूँ मैं, कोई
महत्व नहीं सत्ता का मेरी
जानती हूँ मैं, कुछ
भी नहीं है मेरे वश में...
तब आती है हल्की सी परछाईं समर्पण की
रगड़ती हुई रीढ़ को मेरी
शान्त करती हुई माँसपेशियों को मेरी
और किसी की स्नेहसिक्त वाणी देती है
मुझे आश्वासन
“चिन्ता मत करो
मैं ही लाई हूँ तुम्हें यहाँ
मैं ही निकालूँगी तुम्हें यहाँ से...”
कौन है यह ? मेरी
परम प्रिय आत्मा...
जब सारा संसार फेर लेता है आँखों को
मेरी ओर से
जब सारा संसार उठा लेता है विश्वास मुझ
पर से
पुनः सुनाई देती है वही स्नेहसिक्त
ध्वनि
“तुम अच्छी हो, श्रेष्ठ
औरों से...
समय आ गया है त्यागने का सारे दुःख
दर्द
समझो आँसू की उन गर्म बूँदों को
जो गिर पड़ी हैं हम दोनों के मध्य
और गिराओ उन्हें
और तब तुम हो जाओगी एक
मेरे साथ....”