उठो देव जागो देव
उठो देव जागो देव, पाँवड़ियाँ चटकाओ देव
सिंघाड़े का भोग लगाओ देव, गन्ने का भोग लगाओ देव
मूली और गुड़ का भी आओ मन भर भोग लगाओ देव
चार महीने के सोए देव जागो जागो जागो...
देव उठेंगे कातक मास, नयी टोकरी, नयी कपास
ज़ारे मूसे खेतन जा, खेतन जाके, मूँज कटा
मूँज कटाके, बाण बटा, बाण बटाके, खाट बुना
खाट बुनाके गूँथन दे, गूँथन देके दरी बिछा
दरी बिछाके लोट लगा, लोट लगाके मोटों हो, झोटों हो
चार महीने के सोए देव जागो जागो जागो...
गोरी गाय, कपला गाय, जाको दूध, महापन होए, सहापन होए
जितने अम्बर उडगन होएँ, इतनी या घर गावनियो
चार महीने के सोए देव जागो जागो जागो...
जितने जंगल सीख सलाई, इतनी या घर बहुअन आई
जितने जंगल हीसा रोड़े, इतने या घर बलधन होएँ
चार महीने के सोए देव जागो जागो जागो...
जितने जंगल झाऊ झुंड, इतने या घर जन्मो पूत
ओले क़ोले धरे अनार, ओले क़ोले धरे मंजीरा
चार महीने के सोए देव जागो जागो जागो...
अभी कल देव प्रबोधिनी एकादशी का ऋतु पर्व है - ऐसे में बचपन की कुछ स्मृतियाँ मन में घुमड़ गईं | यों तो उस समय प्रायः सभी परिवारों में होली से लेकर वसन्त, हरियाली तीज, रक्षा बन्धन और श्री कृष्ण जन्माष्टमी के पर्व मनाते मनाते आ जाते थे श्राद्ध पर्व – पर्व इसलिये क्योंकि दिवंगत पूर्वजों के प्रति श्रद्धा सुमन समर्पित करने हेतु समस्त परिवारी जन मिलकर उनकी पसन्द का भोजन बनाते थे आर ब्राह्मण भोज के साथ ही सामाजिक भोज भी हुआ करता था – तो उत्सव जैसा वातावरण बना रहता था | और फिर नवरात्रों से तो हर दिन उत्सव होते ही हैं | और हर उत्सव का एक विधान होता है – एक विधि होती है | बच्चों को और क्या चाहिए होता है – परिवार में सभी लोग एक छत के नीचे इकट्ठा होकर आनन्द मनाएँ |
तो हम बात कर रहे थे देवोत्थान एकादशी की जिसकी विशेष रूप से प्रतीक्षा रहा करती थी – दीपावली और गंगा
स्नान के मेले की ही भाँति | और होता यह था कि एकादशी से सप्ताह भर पहले से ही पिताजी के शिष्य किसानों के घरों से गन्ने आने आरम्भ हो जाते थे | एकादशी तक तो इतने गन्ने, गुड़, सिंघाड़े और मूली इकट्ठा हो जाया करती थीं कि मोहल्ले भर में बाँटी जाती थीं पूजा के लिए भी और खाने के लिए भी | और परिवार के सभी लोग जी भर भोग भी लगाते रहते थे गन्नों का | अड़ोस पड़ोस उन दिनों परिवार के ही जैसे हुआ करते थे - तो सबकी मौज आ जाती थी | उन दिनों अधिकाँश शिक्षकों के घरों का यही हाल था | शिक्षक अपने विद्यालय के विद्यार्थियों को घरों में बुलाकर अपनी सन्तान मानकर पूर्ण मनोयोग से पढ़ाते भी थे - सुस्वादु घर का बना भोजन भी शिष्यों के साथ सपरिवार मिल जुल कर ग्रहण करते थे और तिस पर ट्यूशन फीस भी नहीं लेते थे | तो इन शिक्षकों के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए कृषक वर्ग इस तरह की वस्तुएँ समय समय पर श्रद्धाभाव से पहुँचाता रहता था - बार बार मना करने पर भी उनका उत्तर होता था "देखो जी गुरु जी मना मत ना करो... अब तुम इत्ता सारा गियान दो हो हमारे बच्चों को तो हमारा भी कुछ फरज बने अक ना..." और इस तरह माँ पिताजी को चुप करा दिया जाता था | ऐसा आत्मिक सम्बन्ध उन दिनों शिक्षकों-शिष्यों-अभिभावकों का हुआ करता था |
पूजा वाले दिन माँ ने जहाँ दीवार पर रंग बिरंगी दीपावली बनाई होती थी वहीं नीचे ज़मीन पर पीसे हुए चावल के घोल, रोली और हल्दी से माता लक्ष्मी और विष्णु भगवान बनाया करती थीं और फिर घर के मुख्य द्वार से पूजा कक्ष, रसोई और दूसरे कमरों तक मुट्ठी और उँगलियों की सहायता से पैर बनाया करती थीं – बताती थीं ये लक्ष्मी जी के चरण होते थे जो बाहर से भीतर आते बनाए जाते थे | लक्ष्मी-विष्णु जी के चित्र के पास ज़मीन पर ही एक स्थान पर गन्ने, मूली, सिंघाड़े, गेहूँ, खील बताशे और गुड़ इत्यादि रखकर, दीप प्रज्वलित करके कुछ पूजा की जाती थी और उसके बाद किसी थाल को उल्टा करके उस पर ताल देते हुए सारी महिलाएँ ससुर में सुर मिलाकर यही गीत गाया करती थीं | हमारा घर इन समस्त प्रकार की गतिविधियों का केन्द्र हुआ करता था | और ये गीत हम सबको इतना मन भाता था कि इसी गीत को सुनने के लिए हम देव प्रबोधिनी एकादशी की वर्ष भर प्रतीक्षा किया करते थे | और एक बात, इस
गीत में गेयता है लेकिन बहुत सी जगहों पर छन्द ठीक भी नहीं हैं - फिर भी जब सारी महिलाएँ समवेत स्वर में गाती थीं तो मन आनन्द से झूम उठता था - यही है लोक गीतों की महिमा... जिनमें व्याकरण का कोई अर्थ ही नहीं रहता... यदि कुछ होता है तो वह है रस, स्वर, लय और भाव... और यही है लोक पर्वों की महत्ता कि बड़ी सरलता से समूची प्रकृति का - प्रकृति के संसाधनों का महत्त्व मानव को समझा देते हैं...
वास्तव में यह पर्व भी ऋतुकालोद्भव पर्व ही है | इसका धार्मिक-आध्यात्मिक महत्त्व होने के साथ ही यह एक सामाजिक लोकपर्व है और नई फसल के स्वागत का पर्व है - प्रकृति का पर्व है | इस गीत में कितनी सुन्दरता से लोकभाषा में कहा गया है कि इस अवसर पर नया बाँस, नया कपास, नयी मूँज सब कुछ उत्पन्न हो जाता है जिससे टोकरी, खाट के बाण, दरी सब कुछ नया बनाया जा सकता है | खेतिहर लोग थे तो इन्हीं समस्त वस्तुओं से चारपाई बिस्तर तथा अन्य भी घर में उपयोग में आने वाली वस्तुएँ बनाते थे | साथ ही गन्ने का रस होता भी पौष्टिक है – व्रत के पारायण के समय यदि इक्षुरस का पान कर लिया जाए तो तुरन्त शक्ति प्राप्त हो जाती है | जितनी भी वस्तुएँ पूजा में रखी जाती हैं सभी पौष्टिकता से भरपूर होती हैं | साथ ही गउओं के अमृततुल्य दूध की महिमा बताई गई है | स्वच्छ निर्मल आकाश में चमकती तारावलियों की भाँति भरे पूरे परिवार हों | गोरी कपिला गउओं का पावन पौष्टिक दूध निरन्तर सबको प्राप्त होता रहे | परिवारों में इतना अधिक आनन्द हो कि नित मंगल गीत गाए जाते रहें | जिस पर्व की भावना इतनी उत्साह और आनन्द से पूर्ण हो भला उसकी प्रतीक्षा वर्ष भर क्यों न रहेगी ?
अस्तु, सभी को कल मनाई जाने वाली देव प्रबोधिनी एकादशी की अनेकशः हार्दिक शुभकामनाएँ...
उत्तिष्ठ गोविन्द त्यज निद्रां जगत्पतये
त्वयि सुप्ते जगन्नाथ जगत् सुप्तं भवेद्दिदम्
उत्थिते चेष्टते सर्वमुत्तिष्ठोत्तिष्ठ माधव
गतामेघा वियच्चैव निर्मलं निर्मलादिशः
शारदानि च पुष्पाणि गृहाण मम केशव