पथ पर बढ़ते ही जाना है
अभी बढ़ाया पहला पग है, अभी न मग को पहचाना है |
अभी कहाँ रुकने की वेला, मुझको बड़ी दूर जाना है ||
कहीं मोह के विकट भँवर में फँसकर राह भूल ना जाऊँ |
कहीं समझकर सबको अपना जाग जाग कर सो ना जाऊँ |
मुझको सावधान रहकर ही सबके मन को पा जाना है ||
और न कोई साथी, केवल अन्तरतम का स्वर सहचर है
साधन पथ का पथिक मनुज है, और साधना अजर अमर है |
इसीलिए शैथल्य त्याग कर मुझे कर्म में जुट जाना है ||
परिचित निज दुर्बलताओं से, आदर्शोन्मुख श्वास श्वास पर
मंझधारों से डरे बिना अब बढ़ते जाना लहर लहर पर |
बाधाओं को दूर भगा निज लक्ष्य मुझे पाते जाना है ||
रजकण हिमगिरी ज्यों बन जाता, जलकण ज्यों सागर हो जाता |
जैसे एक बीज ही बढ़कर वट विशाल होकर छा जाता |
उसी भाँति मुझको भी जग के सारे मग पर छा जाना है ||
हो उच्छृंखल या श्रद्धानत या स्वच्छन्द विचरने वाला |
जैसा है मानव मानव है, जग की प्रगति इसी पर निर्भर |
अपनी दुर्बलताओं ही में इसे नया सम्बल पाना है ||
भय बाधा से भीति मानकर आगे पीछे कदम हटाना
नहीं रीत इस पथ की, ना ही कर्मयोगी का है यह बाना |
ह्रदय रक्त से ही नवयुग की आशा का साधन पाना है ||
निरत साधना में जो अपनी, उसे न सुध आती है जग की |
अविरत गति चलने वाले को चिंता कभी न होती मग की |
शूल बिछे हों या अंगारे, पथ पर बढ़ते ही जाना है ||