आज फिर यों ही याद आ गए तुम |
कल बैठी देख रही थी एक तस्वीर / इन्द्रधनुष की
जो उतारी थी कभी किसी पहाड़ी पर
सात रंगों की माला धारण किये / इन्द्रधनुष |
और याद आ गया मुझे अपना वो बचपन
कि अक्सर बारिश के बाद
जब भी दीख पड़ता था ये प्यारा सा इन्द्रधनुष
हम देते थे संदेसा उसे / पहुँचाने को उन अपनों के पास
जो जा बैठे थे दूर कहीं / दूसरी दुनिया में
दादी बाबा और दूसरे वो अपने
जिन्होंने बढ़ाया था सदा उत्साह और बरसाया सा असीम स्नेह
कोमल मन पर |
क्योंकि बचपन में कभी दिखाते हुए इन्द्रधनुष / बताया था आपने ही तो
“अपने कभी मरते नहीं, तारे बन कर आकाश में चमकते रहते हैं
और लुटाते रहते हैं अपना स्नेह और आशीर्वाद / वहीं बैठे
जब भी उनसे कुछ कहना चाहो
इन्द्रधनुष को बता देना
पहुँचा देगा संदेसा वो उन तक तुम्हारा...
लिख कर सात रंगों की स्याही से...” |
पर कहाँ अब वो बरसातें / कि जिनके बाद दीख पड़े सतरंगी इन्द्रधनुष
क्योंकि काट कर पेड़ / कर डाला धरा को निर्वस्त्र / स्वार्थी मनुष्य ने |
कहाँ से अब वो उमडें / घुमड़ घुमड़ कर मेघराज की सेनाएँ भी
क्योंकि धरा और नदियों से उठते प्रेरणादायी वाष्पकण
तो सूख चुके हैं जाने कब के |
अब तो आते हैं तेज़ आँधी और तूफ़ान
और कर जाते हैं धूल धूसरित पल भर में हर घर आँगन को |
काश कि फिर से पेड़ उगाकर
वापस लौटा लाएँ ऋतुओं की सखियों को
ताकि सावन में जब बरखा रानी झूमती गाती आए
तो देख सकूँ मैं फिर से वो अनोखा इन्द्रधनुष
जो ले जाएगा मेरा संदेसा पास तुम्हारे...
कि तुम याद बहुत आते हो / ये जानते हुए भी
कि तारे बने तुम लुटा रहे हो / आशीष और नेह की इन्द्रधनुषी किरणें...
मेरे कोमल मन पर... निरन्तर... अनवरत...
https://purnimakatyayan.wordpress.com/2018/07/04/बहुत-याद-आते-हो-तुम