मुझमें ही आदि, अन्त भी मैं, मैं ही जग के कण कण में हूँ |
है बीज सृष्टि का मुझमें ही, हर एक रूप में मैं ही हूँ ||
मैं अन्तरिक्ष सी हूँ विशाल, तो धरती सी स्थिर भी हूँ |
सागर सी गहरी हूँ, तो वसुधा का आँचल भी मैं ही हूँ ||
मुझमें है दीपक का प्रकाश, सूरज की दाहकता भी है |
चन्दा की शीतलता, रातों की नीरवता भी मुझमें है ||
मैं ही अँधियारा पथ ज्योतित करने हित खुद को दहकाती |
और मैं ही मलय समीर बनी सारे जग को महका जाती ||
मुझमें नदिया सा है प्रवाह, मैंने न कभी रुकना जाना |
तुम जितना भी प्रयास कर लो, मैंने न कभी झुकना जाना ||
मैं सदा नई चुनती राहें, और एकाकी बढ़ती जाती |
और अपने बल से राहों के सारे अवरोध गिरा जाती ||
मुझमें है बल विश्वासों का, स्नेहों का और उल्लासों का |
मैं धरा गगन को साथ लिये आशा के पुष्प खिला जाती ||
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