अभी तक आपने पढ़ा ,ऋचा जो एक अनजाने शहर में आती है और देवीलाल जी उसे एक घर किराये पर दिखलाते हैं ,वो घर एकदम निर्जन गली के सबसे आख़िरी मकान है। उस घर में कोई भी किरायेदार आता है ,रातों रात भाग जाता है। लोग कहते हैं -कि वहां किसी की आत्मा निवास करती है ,कोई भी उस स्थान पर आना पसंद नहीं करता किन्तु देवीलाल जी घर की ज़िम्मेदारियों के चलते ,उस बच्ची ऋचा को उस घर को दिखा देते हैं जबकि उनकी पत्नी ने ,उनसे ऐसा करने के लिए मना किया था।ये मकान ''प्रदीप चौबे जी ''का है ,जो देहरादून में रहते हैं। इससे पहले इनके माता -पिता इस घर में रहते थे जो अब नहीं रहे। ये घर बर्षों से इसी तरह खाली पड़ा है। कोई इस घर में आता भी है तो एक दिन भी नहीं टिक पाता। स्वयं देवीलाल जी भी ,उस घर में दुर्घटना का शिकार हो चुके हैं किन्तु उन्हें किसी अनजान व्यक्ति का फोन आता है कि इस घर को, किसी को किराये पर उठा दो। परिस्थिति वश वो, ऋचा को वो घर दिलवा देते हैं और वो ये सोचकर ही सिहर उठते हैं कि बेचारी बच्ची का क्या होगा ?अब तो उसकी रक्षा भगवान ही करेंगे।यह सोचकर अपनी जिम्मेदारियों और लापरवाही से पल्ला झाड़ लेते हैं।
ऋचा ने घर की सफाई करके,अपना सामान जमाया और खाना खाकर आराम किया। एक आदमी का कितना काम होता है ? अब करने को कुछ नही था।तब ऋचा अपने घर के सामने ही ,एक पार्क में टहलने जाती है ,उस बगीचे में कोई भीड़ नहीं ,कोई एक आध बुजुर्ग ही घूम रहे थे। और वे लोग उसे टहलते हुए देखकर बोले -बेटी ,क्या यहाँ नई आयी हो ?
जी ,ऋचा ने जबाब दिया।
तुम्हारा परिवार कहाँ है ?एक ने प्रश्न किया।
जी... मैं अकेली ही हूँ ,यहां नौकरी के लिए आई हूँ। दोनों बुजुर्गों ने एक -दूसरे की तरफ देखा और चुप हो गए। अपना ख़्याल रखना ,कहकर वो लोग चले गए। अब ऋचा भी अपने घर की तरफ चल दी ,उसने उनकी बातों पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया किन्तु जब वो घर के अंदर गयी तो यह देखकर हैरान रह गयी। घर का सारा फर्निचर,सोफे और कुर्सियाँ उलट -पुलट थे ,उसे यह देखकर,हैरानी हुई , वह सोच रही थी -बंद घर में ऐसा कौन कर सकता है ?
शाम भी हो रही थी , सबसे पहले, उसने उस घर के मंदिर में दिया जलाया और आरती भी गाई। अंदर आकर ,वो स्रोईघर में गयी। वहां पहले से ही ,पानी बह रहा था मन ही मन बड़बड़ाई -इस तरह नल खुला कैसे रह गया ?उसे लग रहा था - जैसे आस पास कोई है ? उसने अपने लिए खाना बनाया ,उसकी खाने की थाली खिसककर, दूसरी तरफ चली गयी।उसे अंदर से डर महसूस हुआ, हालाँकि वो अपने को ऐसे दिखला रही थी कि इन बातों से उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। किंतु मन ही मन उसे डर लग रहा था।तभी एक ही झटके में उसने अपनी थाली उठाई और पानी लिया और ऊपर की तरफ चली गयी। वैसे तो अपने मन में साहस दिखला रही थी किंतु उसे ऐसा आभास हो रहा था जैसे कोई उसके आस पास, आगे - पीछे है किसी की दृष्टि उसे घूर रही है । रात्रि के समय, उस निर्जन से दिखने वाले मकान में वो अकेली थी ।अपने कमरे में जाकर ही ,उसने चेेन की साँस ली ,उस कमरे में , उसने एक पदार्थ छिड़का और आराम से बैठकर खाना खाने लगी।उसे कमरे के बाहर कोई छाया दिख रही थी किन्तु वो निश्चिन्त थी।
बाहर से ,कभी किसी सामान के गिरने की आवाज आ रही थी। कभी जैसे कोई दीवारें खरोंच रहा हो। कभी लगता -जैसे कोई रो रहा है ,किन्तु उसने तो जैसे, इस कमरे को अपना कवच बना लिया। वो बाहर नहीं निकली , एकबारग़ी वो कमरे के बाहर छज्ज़े पर आई थी। बाहर दहशत भरी अँधेरी रात्रि थी। उसने नीचे देखा ,दो बुजुर्ग हाथ थामे ,एक कोने में बैठे हैं और रो रहे हैं। उनके रुदन में इतना व्याकुल कर दिया,कि ऋचा अधिक देर तक सुन नहीं पाई ,किन्तु ये लोग मेरे घर के अंदर क्या कर रहे हैं ?अभी वो ऐसा सोच ही रही थी कि बड़े जोरों से पेड़ों के हिलने की आवाज आई। और एक साया लहराता हुआ सा ऊपर की तरफ आया किन्तु ऋचा इस चीज के लिए जैसे पहले ही तैयार थी और वो फुर्ती से अंदर चली गयी।बाहर से चीखने की आवाजें ही आ रही थीं वो भी इतनी डरावनी कोई और होता तो डरकर बेहोश हो जाता या घर छोड़कर ही भाग गया होता। किन्तु ऋचा अंदर उस कमरे में जाकर,फिर बाहर नहीं आई और प्रात काल,जब तक सूरज सिर तक नहीं आ गया ,वो अंदर ही रही।
अब दफ्तर जाने का समय भी हो गया ,वो नीचे आई ,और अपने दफ़्तर जाने की तैयारी करने लगी। उसने देखा ,उसका एक -एक सामान बिखरा पड़ा है ,जैसे ये घर किसी के क्रोध का भाजन बना हो। उस सब पर ध्यान न देकर ,वो तैयार होने लगी। परेशानी तो थी, कोई भी सामान सही जगह पर नहीं था ,उसे क्रोध तो बहुत आ रहा था किन्तु कहे भी किससे ,कोई दिखाई तो दे ?
तभी देवीलाल जी का स्वर गूंजा -ऋचा..... ऋचा..... !
ऋचा बाहर आई और बोली -क्यों सेठ जी सुबह -सुबह कैसे आना हुआ ?अभी मैं अपने दफ्तर के लिए तैयार हो रही हूँ। ऋचा को सही -सलामत देखकर ,उनकी जान में जान आई ।
बोले -कुछ नहीं ,बस ये पूछने चला आया कि कोई परेशानी तो नहीं है।
ऋचा ने उन पर व्यंग्य करते हुए कहा -जब आपने मकान दिलवाया है ,तो काहें की परेशानी ?कहकर हँस दी। ऋचा सेठजी से बोली -बाहर से ही पूछते रहेंगे या अंदर भी आएंगे।
सुनते ही सेठजी घबराकर बोले -नहीं -नहीं ,मैं तो बस ख़ैर -ख़बर पूछने आ गया था ,अब चलता हूँ ,कहकर वहां से ''नौ -दो ग्यारह हो लिए ''
ऋचा से मिलने के पश्चात भी, वो परेशान थे ,जिस घर में इतने लोग आये और एक रात भी नहीं टिक पाए ,ये कैसे ?अकेली बच्ची है। नंदू तो यहां के नाम से ही कांपता है और ये बच्ची..... कुछ तो बात अवश्य है।
दफ्तर जाते समय ,ऋचा के पापा का फोन आता है -मालिनी बेटा !क्या कर रही हो ?
जी पापा ! मैं अपने दफ्तर के लिए निकली हूँ।
रात में कोई परेशानी ......
उनकी बात पूर्ण होने से पहले ही ऋचा बोली -पापा वो तो बहुत खतरनाक है किन्तु जैसे आपने बताया ,मैंने वैसा ही किया। आप बेफ़िक्र रहें , मैं सब संभाल लूँगी। कोई परेशानी होगी तो आपसे कहूंगी और वो अपने सेठजी का किस्सा उन्हें हँसते हुए बताने लगी कि कैसे उनके चेहरे की हवाइयाँ उडी हुई थीं ?
जिसका ये फोन आया वो ऋचा को मालिनी क्यों बोल रहे थे क्या ऋचा इस घर के विषय में इससे जुड़े खतरों के विषय में पहले से जानती थी? वो किसके लिए कह रही थी - पापा वो तो बहुत ख़तरनाक है ये शब्द किसके लिए थे ? कौन है वो.. .