ऋचा उस फ्लैट में घुसती है , उसके घुसते ही ,एक अजीब ,तेज़ बदबू का झोंका ,उसके नथुनों से टकराया ,उसने तुरंत ही अपना हाथ अपनी नाक पर रख लिया। वो बोली -देवीलाल जी ये आप मुझे कहाँ ले आये ?और ये कैसा मकान दिखा रहे हैं ?
देवीलाल अभी बाहर ही खड़ा था ,वहीं से अपने पान खाये मुँह को संभालते हुए बोला -जी ,दरअसल ये मकान बहुत दिनों से बंद था ,इसीलिए ऐसी महक घर में समा गयी है। अभी आप इसे देख लीजिये ,कल इसकी सफ़ाई करा देंगे और परसों आकर अपना सामान लगा देना।
ऋचा बोली -ये महक है ,इतनी बदबू आ रही है कि मुझे उल्टी हो जाएगी। देवीलाल बोला - अभी आप देख लीजिये ,दो कमरे हैं ,उनसे लगा स्नानागार भी है ,रसोईघर भी है ,सब चीजें देख लीजिये। ऋचा ने कमरे की अलमारी खोलकर देखी और चीख़ पड़ी। उसकी चीख़ सुनकर देवीलाल ,बाहर खड़े -खड़े ही बुदबुदाया -लगता है ,ये किरायेदार भी हाथ से निकल जायेगा। बोला -क्या हुआ ?
तब तक हांफती सी ऋचा बाहर आ गयी और बोली -इस घर को तो बहुत ही सफाई की आवश्यकता है ,लगता है ,बरसों से कोई भी इस मकान में नहीं आया। ऋचा को देखकर देवीलाल ने राहत की साँस ली और अपने रंगीन दाँत दिखाते हुए बोला -क्या हुआ था ,तुम इतनी जोर से क्यों चीख़ी थीं? वो उस अलमारी में ,बड़ा और मोटा चूहा था। मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा और न ही मैं ,इतना किराया दे पाऊँगी ,आप और कोई जगह देखिये, साफ -सुथरी सी।
देवीलाल बोला -जैसी जगह ,आप देखना चाह रही हैं ,वो आपके दफ्तर से दूर ,और महंगी भी होगी। आने -जाने में किराया और वक़्त दोनों ही ज्यादा लगेंगे।ये नजदीक भी है और किराया भी इतना ज्यादा नहीं है। ऋचा को देवीलाल की बात जंची ,कह तो ठीक ही रहा है। ऋचा को शांत देखकर उसे लगा, कि मामला बन सकता है ,अपनी बात आगे बढ़ाते हुए बोला -जब यहां जम जाओ !तब दूसरे कमरे में अपने ही साथ की किसी भी लड़की को रख लेना और मन ही मन मुस्कुराता हुआ बोला -कोई भी दोस्त,और किराया भी बंट जायेगा।
ऋचा के बाहर निकलते ही ,देवीलाल ने ,उस फ्लैट का ताला तुरंत लगा दिया। तब ऋचा बोली -आप इसे बंद मत करिये ,इसे खुला रहने दीजिये ताकि इस घर की बदबू निकल जाये। ठीक है ,कहते हुए ,उसने चाबी अपनी जेब के हवाले की ,बोला- जब इसकी सफ़ाई होगी ,तभी खुलवाकर छोड़ देंगे। ऋचा सोच रही थी -देखती हूँ ,कैसी सफ़ाई करवाता है ?अभी मेरा सामान होटल में रखा है , पैसा भी बढ़ता जा रहा है ,अभी तो वेतन भी नहीं आया और खर्चें पहले ही सिर पर आन पड़े। यहां अभी मैं किसी को जानती भी नहीं ,जब जान जाऊंगी ,हाथ में थोड़े पैसे आ जायेंगे तो कोई अच्छी सी जगह ,देखकर मकान बदल दूंगी। यही सोचकर उसने अपने मन को समझाया।
देवीलाल ऋचा के जाने के पश्चात किसी को फोन करता है -हैलो साहब !कोशिश तो कर रहा हूँ ,देखता हूँ ,शायद आज ही कुछ बात बन जाये। मैं कोशिश में हूँ ,इस शहर का तो कोई आएगा नहीं ,कोई अनजान या मजबूरी का मारा ही आ सकता है। आज ही एक बच्ची आई है, किन्तु साहब ,इस बार तो कमाल हुआ ,मैं तो अंदर गया ही नहीं उस लड़की को ही भेजा ,उसे दुर्गंध तो बहुत आ रही थी किन्तु बेचारी अंदर गयी और आराम से आ भी गयी ,वरना इससे पहले तो, जो इस मकान से निकलकर भागे हैं, फिर मुड़कर नहीं देखा।
ये फ्लैट ,देहरादून में रह रहे ,चौबे जी का है। पहले इसमें इनके माता -पिता रहते थे ,यहीं उनका कारोबार था। बेटा 'प्रदीप चौबे 'अपनी नौकरी पर बाहर रहता हैं। जब तक माता -पिता जिन्दा थे ,तीज -त्यौहार में कभी -कभार आ जाते और घर की देखभाल भी हो जाती। बेटा तो यहां आकर रह नहीं सकता उनके पश्चात व्यापार भी कौन संभाले ?इस उम्र में इतनी भाग -दौड़ तो अब होती नहीं। धीरे -धीरे सब बंद करना पड़ा। अपने पास जो जमा -पूंजी थी उसी से ,अपना बुढ़ापा काट रहे थे। कभी बेटे का मुँह नहीं देखा कि वो खर्चा देगा। उन्होंने पहले ही इतना जोड़ रखा था कि बुढ़ापे में ,बेटे के सामने हाथ न फैलाना पड़े। बेटा भी ऐसा ,कभी उसने अपने माता -पिता से पूछा ही नहीं ,कोई आवश्यकता तो नहीं। पैसे या कोई भी मदद बल्कि पड़ोसी हारी -बीमारी में आ जाते। बेचारे व्यवहार में ,इतने अच्छे थे कोई न कोई आ ही जाता।
ऋचा इस शहर में नई आई है ,वो यहाँ किसी को जानती भी नहीं ,आते ही अपनी कम्पनी में गयी। वहां कुछ औपचारिकताओं की पूर्ति की गयी। उसका सामान भी उसी गाड़ी में पड़ा रहा जो वो अपने घर से लेकर आई थी ,उसे उम्मीद थी ,शायद वो वापस घर जा सकती है। कार्य घर से करना पड़ सकता है किन्तु उसे पता चला कि उसको तो यहीं रहना पड़ सकता है ,उसने तब भी गाड़ीवाले को नहीं छोड़ा।ये ही तो उसके शहर का है जिस कारण उसे लग रहा था जैसे कोई अपना उसके संग है। शायद घर दिलवाने में ये ही सहायता कर दे। वो अपनी कम्पनी से बाहर निकली और वाहन चालक से बोली -चलो ,शास्त्रीनगर ले चलो !वो बोला -क्या आप वहां किसी को जानती हैं ?नहीं ,मुझे कम्पनी में ही किसी ने बताया कि वहाँ कोई भी मकान या फ्लैट मिल ही जायेगा। वो फोन पर देखते हुए ,शास्त्रीनगर पहुंच गयी।
शाम हो रही थी ,जल्दी ही उसे कहीं रुकना था ,उसने पहले एक होटल में ,अपना सामान रखा और गाड़ी वाले को भी छोड़ दिया। पैदल ही ,शास्त्रीनगर में घुस गयी ,टहलते हुए सोच रही थी -किससे पूछूं ?तभी उसे एक दफ्तर दिखा ,जिस पर लिखा था -अपनी घर से जुडी कोई भी परेशानी हमें बताएं !उसे उस तख्ती को देखकर अजीब लगा किन्तु सोचा -लोग अपनी तरफ ,ध्यान आकर्षित करने के लिए ,क्या कुछ नहीं करते ?इन लोगों ने भी ऐसा ही कुछ लिखा है। वो मुस्कुराई और उस दफ्तर में घुस गयी , वो सही जगह खड़ी थी।