भाई दूज भाई भाई के मध्य भी हो तो कैसा रहे
कल यों ही दो मित्रों की बातें सुनकर मन में कुछ विचार उत्पन्न हुआ जो
मित्रों के साथ साझा करने की सोची | एक मित्र दूसरे मित्र से बोल रहा था कि भाई कल
दिल्ली वापस आ रहा हूँ और तब हम दोनों भाई मिलकर भाई दूज मनाएँगे | मन में विचार
आया कि बात तो सही है, बहन भाई की मङ्गलकामना से भाई का तिलक कर सकती
है तो दो भाई आपस में एक दूसरे की मङ्गलकामना से भाई दूज का तिलक क्यों नहीं कर
सकते ? मित्रों के साथ इस विचार को साझा किया तो मज़ाक़ मज़ाक़
में शुरू हुई बात ने एक गम्भीर मन्त्रणा का रूप ले लिया जिसे देखकर अच्छा भी लगा
और बात को आगे बढ़ाने का मन भी हुआ | अधिकाँश मित्रों ने पुराणों का तर्क देकर इस
पर्व को भाई बहन के मध्य ही रहने देने की बात कही - क्योंकि पौराणिक आख्यान यही
कहते हैं |
एक मित्र ने बड़ा तर्कसंगत उत्तर लिखा "पुरुष में अहंकार होता है जिससे
भाई भाई लड़ते रहते हैं | पिता की संपत्ति हड़पने के लिये गला काटने को तैयार रहते हैं
| ऐसे भाई दूसरे भाई की रक्षा क्या करेंगे ? वहीं बहन, यमुना की
तरह कालिया से त्रासित होकर भी श्यामल रंग होने के बावजूद भाई के कुशलता की कामना करती
है | सहोदर का स्नेह प्राचीन काल से भाई-बहन के बीच ही रहा है, भाई भाई तो महाभारत करवा देते हैं |"
धन्यवाद प्राणनाथ मिश्रा जी, भाई-भाई के मध्य भाई दूज की
बात से हम इसी बिन्दु पर पहुँचना चाहते थे | यदि भाई भी भाई को और मित्र भी मित्र
को भाई मानकर टीका करने लग जाएँ तो शायद ये "महाभारत" फिर से लिखने का
कारण ही न बने | क्योंकि धार्मिक भाव से एक दूसरे के प्रति स्नेहशील रहेंगे दोनों |
जैसे रक्षाबंधन को ही लीजिये, पौराणिक काल से यजमान और
पुरोहित एक दूसरे को रक्षा सूत्र बाँधते हैं, शत्रु को मित्र
बनाने के लिए रक्षा सूत्र बाँधा जाता है, आचार्य रवीन्द्रनाथ
टैगोर ने तो बंग भंग के विरोध में लोगों को एकजुट करने के लिए राखी बाँधने का
आन्दोलन चलाया था - यानी किसी तर्क और नीति संगत बात को जन आन्दोलन का रूप देने के
लिए - ताकि जन साधारण उसका महत्त्व समझ सके - रक्षा बन्धन जैसा कार्य किया जा सकता
है | बंगाल के हिन्दू-मुसलमानों को आपसी भाईचारे का संदेश देने के लिए टैगोर ने
राखी का उपयोग किया था | रवीन्द्रनाथ टैगोर चाहते थे कि हिंदू और मुसलमान एक दूसरे
को राखी बाँधकर शपथ लें कि वे जीवन भर एक-दूसरे की सुरक्षा का एक ऐसा रिश्ता बनाए
रखेंगे जिसे कोई तोड़ न सके |
पर्यावरण और प्रकृति की सुरक्षा के विषय में चिन्ता करने वाले लोग वृक्षों
की रक्षा के लिए रक्षा बन्धन के दिन तथा अन्य अवसरों पर भी “वृक्षाबन्धन” करते हैं
| वट सावित्री अमावस्या को वटवृक्ष की पूजा, इसके अतिरिक्त पीपल के
वृक्ष की, आँवले के वृक्ष और तुलसी के वृक्ष इत्यादि की पूजा
इस का तो प्रतीक हैं | किसी भी अच्छे प्रयास को यदि धर्म के साथ जोड़ दिया जाता है
तो उसका प्रभाव निश्चित रूप से मानव मात्र पर पड़ता है, क्योंकि
स्वभावतः मनुष्य धर्मभीरु होता है | इसी प्रकार से यदि भाई दूज जैसे पवित्र और
हर्षपूर्ण अवसर का भी ऐसा ही सदुपयोग किया जाए और इसे भाई-बहन के स्नेह के प्रतीक
के साथ ही जन साधारण के मध्य तथा प्रकृति के प्रति स्नेह के प्रतीक के रूप में
मनाया जाए तो हमारे विचार से इसका महत्त्व और भी बढ़ जाएगा |