भाई
दूज, यम द्वितीया, चित्रगुप्त
जयन्ती
पाँच पर्वों की श्रृंखला दीपावली की
पञ्चम और अन्तिम कड़ी है 16 नवम्बर कार्तिक शुक्ल द्वितीया को मनाया जाने
वाला भाई बहन के मधुर सम्बन्धों तथा भाईचारे का प्रतीक पर्व भाई
दूज – जिसे यम द्वितीया के
नाम से भी जाना जाता है | यम द्वितीया नाम के पीछे भी एक कथा
है कि समस्त चराचर को सत्य नियमों में आबद्ध करने वाले धर्मराज यम बहुत समय पश्चात
अपनी बहन यमी से मिलने के लिए इसी दिन गए थे | यमी अपने भाई
से मिलकर बहुत प्रसन्न हुई और उनकी ख़ूब आवभगत की | बहन के
स्नेह से प्रसन्न यमराज ने बहन से वर माँगने के लिए कहा तो यमी ने दो वरदान माँगे
– एक तो यह कि यह दिन भाई बहन के प्रेम के लिए विख्यात हो और दूसरा यह कि इस दिन
जो भाई बहन यमुना के जल में स्नान करें वे आवागमन के चक्र से मुक्त हो जाएँ |
कहते हैं तभी से ये प्रथा चली कि कार्तिक शुक्ल द्वितीया को सभी भाई
अपनी बहनों के घर जाकर टीका कराते हैं और अपनी दीर्घायु तथा सुख समृद्धि के लिए
उनका आशीर्वाद लेते हैं |
एक कथा एक वर्ग विशेष के साथ जुड़ी हुई है
| माना जाता है कि आज के ही दिन धर्मराज
यम के लेखाकार चित्रगुप्त का जन्मदिवस है | भगवान
चित्रगुप्त परमपिता ब्रह्मा के अंश से उत्पन्न माने
जाते हैं | मृत्यु जीवन का चरम सत्य है इससे कोई अनभिज्ञ नहीं है | जो भी प्राणी धरती पर जन्म लेता है उसकी मृत्यु निश्चित है क्योंकि
प्रकृति के सन्तुलन के निमित्त यही विधि का विधान है | चाहे
कोई भगवान हों, ऋषि मुनि हों – कोई भी हों – जीवन के इस सत्य
को कोई झुठला नहीं पाया | सभी को निश्चित समय पर इस नश्वर
शरीर का त्याग करना ही पड़ता है | और यह भी एक सत्य है कि
मरणोपरान्त क्या होता है यह एक रहस्य ही बना हुआ है | गीता
दर्शन के अनुसार तो इस शरीर का त्याग करते ही आत्मा तुरन्त नवीन शरीर धारण कर लेती
है:
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि ग्रहणाति नरो पराणि |
तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यानि संयाति
नवानि देही ||
किन्तु ऐसी भी मान्यता है कि आत्मा किस
शरीर में प्रविष्ट होगा अथवा किस लोक में जाएगा इसका निश्चय उस “दूसरे” लोक में
जाने के बाद ही होता है | पौराणिक मान्यता के
अनुसार इस मृत्युलोक के ऊपर एक दिव्य लोक है जहाँ न जीवन का हर्ष है और न मृत्यु
का शोक – वह लोक जीवन मृत्यु तथा समस्त प्रकार के भावों से परे है | जीवात्मा को इस दिव्य लोक में जाना है अथवा अपने किन्हीं संचित कर्मों का
फल भोगने के लिए या किसी नवीन ज्ञान के अर्जन के लिए पुनः पृथिवी पर वापस लौटना है
इसका निर्णय धर्म और नियम संयम के देवता यमराज के द्वारा किया जाता है | चित्रगुप्त को इन्हीं यमराज का लेखाकार माना जाता है | गरुड़ पुराण में इस प्रकार के अनेक सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं | इन्हें महाशक्तिमान क्षत्रिय के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है |
ऋग्वेद के एक मन्त्र में चित्र नामक राजा का सन्दर्भ आया है जिन्हें
चित्रगुप्त माना जाता है:
चित्र
इद राजा राजका इदन्यके यके सरस्वतीमनु |
पर्जन्य इव ततनद धि वर्ष्ट्या सहस्रमयुता ददत ||
कहते हैं सृष्टि के निर्माण के उद्देश्य
से जब भगवान विष्णु ने अपनी योग माया से सृष्टि की कल्पना की तो उनकी नाभि से एक
कमल का प्रादुर्भाव हुआ जिस पर एक पुरूष आसीन था | क्योंकि इसकी उत्पत्ति ब्रह्माण्ड की रचना और सृष्टि के निर्माण के
उद्देश्य से हुई थी अतः इन्हें “ब्रह्मा” नाम दिया गया | इन्हीं
से सृष्ट की रचना के क्रम में देव-असुर, गन्धर्व, किन्नर, अप्सराएँ, स्त्री-पुरूष,
पशु-पक्षी और समस्त प्रकृति का प्रादुर्भाव हुआ | बाद में इसी क्रम में यमराज का भी जन्म हुआ जिन्हें धर्मराज की संज्ञा
प्राप्त हुई क्योंकि धर्मानुसार उन्हें जीवों को दण्ड देने का कार्य सौंपा गया था |
अब धर्मराज को अपने लिए एक लेखाकार सहयोगी की आवश्यकता हुई |
धर्मराज की इस माँग पर ब्रह्मा जी समाधिस्थ हो गये और एक हजार वर्ष
की तपस्या के बाद जब वे समाधि से बाहर आए तो उन्होंने अपने समक्ष एक तेजस्वी पुरुष
को खड़े पाया जिसने उन्हें बताया कि उन्हीं के शरीर से उसका जन्म हुआ है | तब ब्रह्मा जी ने उसे नाम दिया “चित्रगुप्त” | क्योंकि
इस पुरूष का जन्म ब्रह्मा जी की काया से हुआ था अतः ये कायस्थ कहलाये | कायस्थ – काया में स्थित - शब्द का शाब्दिक अर्थ होता अपने शरीर में स्थित
| अपनी इन्द्रियों पर जिसका पूर्ण नियन्त्रण हो गया हो वह भी
कायस्थ कहलाता है |
भगवान चित्रगुप्त एक कुशल लेखक हैं और
इनकी लेखनी से जीवों को उनके कर्मों के अनुसार न्याय प्राप्त होता है । आज के दिन
धर्मराज यम और चित्रगुप्त की पूजा अर्चना करके उनसे अपने दुष्कर्मों के लिए क्षमा
याचना का भी विधान है |
भाई दूज के विषय में मन में एक विचार उत्पन्न हुआ कि यदि बहन भाई की
मङ्गलकामना से भाई का तिलक कर सकती है तो दो भाई आपस में एक दूसरे की मङ्गलकामना
से भाई दूज का तिलक क्यों नहीं कर सकते ? मित्रों के मध्य ये विचार प्रस्तुत किया तो बहुतायत में
यही उत्तर मिला कि इस पर्व को भाई बहन के मध्य ही रहने दिया जाए - क्योंकि पौराणिक
आख्यान यही कहते हैं | एक मित्र ने तो पक्ष में बहुत सुन्दर
तर्क भी प्रस्तुत किया "पुरुष में अहंकार होता है जिससे भाई भाई लड़ते रहते
हैं | पिता की संपत्ति हड़पने के लिये गला काटने को तैयार
रहते हैं | ऐसे भाई दूसरे भाई की रक्षा क्या करेंगे ?
वहीं बहन, यमुना की तरह कालिया से त्रासित
होकर भी श्यामल रंग होने के बावजूद भाई के कुशलता की कामना करती है | सहोदर का स्नेह प्राचीन काल से भाई-बहन के बीच ही रहा है, भाई भाई तो महाभारत करवा देते हैं |"
वास्तव में भाई-भाई के मध्य भाई दूज की बात से हम इसी बिन्दु पर पहुँचना
चाहते थे | यदि भाई भी भाई को
और मित्र भी मित्र को भाई मानकर टीका करने लग जाएँ तो शायद ये "महाभारत"
फिर से लिखने का कारण ही न बने | क्योंकि धार्मिक भाव से एक
दूसरे के प्रति स्नेहशील रहेंगे दोनों | जैसे रक्षाबंधन को
ही लीजिये, पौराणिक काल से यजमान और पुरोहित एक दूसरे को
रक्षा सूत्र बाँधते हैं, शत्रु को मित्र बनाने के लिए रक्षा
सूत्र बाँधा जाता है, आचार्य रवीन्द्रनाथ टैगोर ने तो बंग
भंग के विरोध में लोगों को एकजुट करने के लिए राखी बाँधने का आन्दोलन चलाया था -
यानी किसी तर्क और नीति संगत बात को जन आन्दोलन का रूप देने के लिए - ताकि जन
साधारण उसका महत्त्व समझ सके - रक्षा बन्धन जैसा कार्य किया जा सकता है | बंगाल के हिन्दू-मुसलमानों को आपसी भाईचारे का संदेश देने के लिए टैगोर ने
राखी का उपयोग किया था | रवीन्द्रनाथ टैगोर चाहते थे कि
हिंदू और मुसलमान एक दूसरे को राखी बाँधकर शपथ लें कि वे जीवन भर एक-दूसरे की
सुरक्षा का एक ऐसा रिश्ता बनाए रखेंगे जिसे कोई तोड़ न सके |
पर्यावरण और प्रकृति की सुरक्षा के विषय में चिन्ता करने वाले लोग वृक्षों
की रक्षा के लिए रक्षा बन्धन के दिन तथा अन्य अवसरों पर भी “वृक्षाबन्धन” करते हैं
| वट सावित्री
अमावस्या को वटवृक्ष की पूजा, इसके अतिरिक्त पीपल के वृक्ष
की, आँवले के वृक्ष और तुलसी के वृक्ष इत्यादि की पूजा इस का
तो प्रतीक हैं | किसी भी अच्छे प्रयास को यदि धर्म के साथ
जोड़ दिया जाता है तो उसका प्रभाव निश्चित रूप से मानव मात्र पर पड़ता है, क्योंकि स्वभावतः मनुष्य धर्मभीरु होता है | इसी
प्रकार से यदि भाई दूज जैसे पवित्र और हर्षपूर्ण अवसर का भी ऐसा ही सदुपयोग किया
जाए और इसे भाई-बहन के स्नेह के प्रतीक के साथ ही जन साधारण के मध्य तथा प्रकृति
के प्रति स्नेह के प्रतीक के रूप में मनाया जाए तो हमारे विचार से इसका महत्त्व और
भी बढ़ जाएगा |
जो भी मान्यताएँ हों, जो भी किम्वदन्तियाँ हों, यम द्वितीया यानी भाई दूज
भाई बहन का, जन जन के मध्य स्नेह की भावना का तथा प्रकृति के प्रति स्नेह प्रदर्शित
करने का एक बहुत ही उल्लासमय पर्व है | इस उल्लास तथा
स्नेहमय पर्व की सभी को अग्रिम रूप से हार्दिक शुभकामनाएँ…