पितृपक्ष चल रहा है | सभी हिन्दू धर्मावलम्बी अपने दिवंगत पूर्वजों के प्रति श्रद्धा
सुमन समर्पित कर रहे हैं | हमने भी प्रतिपदा को माँ का श्राद्ध किया और अब दशमी को
पिताजी का करेंगे | कुछ पंक्तियाँ इस अवसर पर अनायास ही प्रस्फुटित हो गईं... सुधी
पाठकों के लिए समर्पित हैं...
भरी भीड़ में मन बेचारा
खड़ा हुआ कुछ सहमा कुछ सकुचाया सा
द्विविधाओं की लहरों में डूबता उतराता सा...
घिरा हुआ कुछ कुछ जाने कुछ अजाने / कुछ चाहे कुछ अनचाहे / नातों से...
कभी झूम उठता है देखकर इतने अपनो को
होता है गर्वित और हर्षित / देखकर उनके स्नेह को
सोचने लगता है / नहीं है कोई उससे अधिक धनवान इस संसार में...
होता है स्पन्दित / बज उठता है मन का एकतारा
जब सहलाते हैं कितने ही स्पर्श प्रेम से / अनुराग से...
किन्तु फिर
तभी उपजती है कहीं अवचेतन में
एक अपरिचित
सी आशंका / कहीं ये सब स्वप्नमात्र तो नहीं...
हो जाता है प्रफुल्लित गर्व से
जब कोई करता है गुणगान / उछाह में भर
लेकिन साथ ही होती है एक अजीब सी सिहरन भी / अविश्वास की...
क्योंकि कहीं गहरे / बहुत गहराई में है भान
मुखौटे चढ़ाए हुए उन "अपनों" की प्रकृति का...
तभी तो बहाता है अश्रु / घिरा हुआ अपनों की भीड़ में भी...
हो जाता है उदास / "अपनों" के स्नेहिल स्पर्शों से भी...
और तब बस याद आता है एक ही ठौर
और व्याकुल मन छिप जाता है चुपके से
कहीं पीछे उस ठौर के द्वार के
जो है वात्सल्य के आँचल से ढकी
ममतामयी गोद जनयित्री की...
जहाँ पहुँच मिलता है मन को आश्वासन
विश्वास से परिपूर्ण नेत्रों का जनक के भी...
नहीं हैं जो आज शरीर रूप में निकट मेरे...
किन्तु तब भी मन को है बस एक ही विश्वास
कि निहार रहे हैं एकटक मुझे स्नेह से / कहीं दूर बैठे
और करते हैं मान मेरे हर प्रयास पर...
बनते हैं अवलम्ब मेरा / हर पल / हर घड़ी
ताकि बढ़ती रहूँ मैं निज पथ पर आगे / और आगे
और प्राप्त कर सकूँ लक्ष्य को अपने / बिना किसी बाधा के...