संस्कृत साहित्य में हिमालय- भारतीय
संस्कृति का प्रतीक
कुछ
दिवस पूर्व “हिमालय - अदम्य साधना की सिद्धि का प्रतीक” शीर्षक से एक लेख सुधीजनों
के समक्ष प्रस्तुत किया था | आप सभी से प्राप्त प्रोत्साहन के कारण आज उसी लेख को
कुछ विस्तार देने का प्रयास रहे हैं जिसका भाव यही है कि हमारे संस्कृत साहित्य
में हिमालय को भारतीय संस्कृति के प्रतीक के रूप में चित्रित किया गया है |
संस्कृत
गीर्वाणवाणी है | यह आर्य संस्कृति की
भाषा है | संस्कृत नाम ही उस भाषा का है जो संस्कार से युक्त
हो | हिमालय आर्य संस्कृति का पुंजीभूत स्वरूप है | अतः आर्य संस्कार से युक्त और आर्य संस्कृति से सम्पन्न संस्कृत भाषा ही
हिमालय अर्थात आर्य संस्कृति के पुंजीभूत साकार स्वरूप का यथातथ्य वर्णन करने में
समर्थ भाषा हो सकती थी | दूसरे शब्दों में, हिमालय इस
गीर्वाणवाणी का मौन मुखर सम्वाद है | धर्म-विज्ञान-साहित्य-कला
और संस्कृति के रूप में हमारी जो कुछ भी धरोहर है वह हिमालय का ही वरदान है |
इसीलिये संस्कृत साहित्यकारों ने इस नगराज का यत्र तत्र भावात्मक
वर्णन किया है – “अस्युत्तरस्यां दिशि देवात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः | पूर्वापरौ तोयनिधीवगाह्य स्थितः पृथिव्या इव मानदंड ||”
नगराज
हिमालय – मेरी जननी के मस्तक का हिमकिरीट – अपनी विशालता के ही कारण महान नहीं है, वह केवल इसीलिये आकर्षक नहीं है की बालारुण की रक्ताभ मरीचियाँ उसका
अभिषेक करके उसे दिव्य एवम् अलौकिक आभा से मण्डित कर देती हैं, अथवा उसके आँचल में मौन हिमानी और मुखर निर्झरों, निर्जन
वनों तथा कलापूर्ण आकाश से एक मादक संगीत गूँजता है | उसकी
महत्ता गंगा जैसी दिव्य सरिताओं का पिता होने के कारण है | इन
कलकल छलछल करती सरिताओं के माध्यम से अपनी उदारता, शुचिता तथा
समृद्धि को निरन्तर मुक्तहस्त से लुटाने के कारण ही यह नगराज सर्वोच्च, सर्वोपरि और सर्व समृद्ध माना जाता है | हिमालय का
तात्पर्य केवल भौगोलिक सीमा का स्मरण ही नहीं है, वरन्
आर्यावर्त की पावनता, श्रेष्ठता और अलौकिकता का स्मरण भी है |
क्योंकि हिमालय पूर्व और पश्चिम सागर को नापने वाला पृथिवी का
मानदण्ड भी है और देवात्मा भी है | इसकी आत्मा देवता है और
यह देवताओं की आत्मा है | यह सदा से ही गंगा के प्रवाह से
प्रक्षिप्त बहने वाली औषधियों से प्राकारित, सहज मणिमालाओं
से मण्डित तथा उषा और सन्ध्या के राग से अनुरंजित रहा है, आज
भी है, भविष्य में भी रहेगा | हिमालय
आर्यावर्त का दर्पोन्नत मस्तक है उसका हृदय रसाप्यायित है और रागरंजित है |
भागीरथी के जलशीकरों से शीतल बयार के स्पर्श से उसकी देवदारुरूपी
भुजाएँ सिहर सिहर एवं पुलक पुलक उठती हैं | श्वेत हंसों का
विहार स्थल मानसरोवर उसकी नाभिक में स्थित है | झरनों के
कलरव में उसकी करधनी की घंटियाँ मुखरित हैं और उसके चरणों में है मृगियों के
उच्छृंखल एवं विश्वस्त विहार की भूमि पावन तपोवन | देवाधिदेव
शंकर की तपोभूमि, यक्षों और गन्धर्वों का निवास स्थल,
किन्नरमिथुनों की क्रीड़ाभूमि, सिद्धों और ऋषि
मुनियों का सिद्धपीठ कैलाश पर्वत इसी हिमालय में है | इसकी
निभृत गुहाओं को मेघों के श्वेत-श्याम पट आवृत्त किये रहते हैं | जिनमें पर्वतवासी उसी प्रकार सुरक्षित रहते हैं जैसे माता की गोदी में
शिशु | गन्धर्वों को सरस संगीत और अप्सराओं को मादक नृत्य के
लिये उत्साहित करने वाली पवन कीचकरन्ध्रों में वंशी की ध्वनि गुँजित कर देती है और
उसे सुनकर कुटज की झबरीली झाड़ियाँ झूम झूम उठती हैं | हिमालय
सिद्ध और साधक दोनों को समान रूप से प्रेरणा देता है | नर और
नारायण ही इस भारत के अधिष्ठाता हैं | यहाँ सदैव ही नर में
नारायण का आविर्भाव हुआ है और नारायण स्वयं नर होकर अवतरित हुआ है | नर से नारायण का और नारायण से नर का स्वतः अनुमान भारत में ही होता है |
नर और नारायण दोनों की तपोभूमि है सिद्ध पीठ बद्रिकाश्रम – “पवन
मन्द सुगन्ध शीतल हेममन्दिर शोभितम् | निकट गंगा वहति निर्मल
बद्रिनाथ बिशम्भरम् ||”
नर
और नारायण दोनों ही तप करते हैं | ईश्वर होकर भी कोई इस
कर्मभूमि से विलग नहीं हो सकता | अतः नर और नारायण दोनों को
तप करना है | ईश्वर की सार्थकता लोकभावित होकर स्वेच्छा से
कर्म करने में है, और साधक के लिये नगराज का तपःपूत वातावरण,
विराटता का बोध तथा शैलशिखरों की शुभ्रता के प्रकाश में वन्य
किरातों की सहज और ऋजु दृष्टि प्रेरणा का स्रोत है – “आमेखलं संचरतां घनानां
छायामधः सानुगतां निषेव्य | उद्वेजिता वृष्टिभिराश्रयन्ते
श्रृंगाणि यस्यातपवन्ति सिद्धाः ||” यज्ञार्थ वनस्पतियों का
जन्मदाता हिमालय इतना विशाल और दृढ़ है कि भूमि को भी स्थिर रखता है | वह महान स्रष्टा है और उसकी इस सृष्टिसेवा ने उसे नगाधिराज एवं परम देवता
सिद्ध कर दिया है – “यज्ञांगयोनित्वमवेक्ष्य यस्य सारं धरित्री धरणक्षमम् च |
प्रजापतिः कल्पितयज्ञभागं शैलाधिपत्यम् स्वयमन्वतिष्ठत् |” हिमालय में दिव्य पारिजात उत्पन्न होते हैं पर उन्हें केवल सप्तर्षि ही
प्राप्त कर सकते हैं | इन कमलों को ऊर्ध्वमुखी किरणें ही
विकसित करती हैं | इस अलौकिक सौन्दर्य एवं सौरभ को प्राप्त
करने की क्षमता उसी में हो सकती है जो स्वयम् ऊर्ध्वमुखी हो |
हिमालय
की उदारता यही है कि प्रकाश और अन्धकार दोनों का आश्रयदाता है | आज भी अन्धकार की व्यापक शक्ति को शरण दिये हुए है | उच्चात्माएँ उदार होती हैं | उनके द्वारा प्रत्येक
शरणार्थी को शरण प्राप्त होती है – “दिवाकराद्रक्षति यो गुहासु लीनं
दिवभीतमिवान्धकारम् | क्षुद्रोपि नूनं शरणं प्रपन्ने
ममत्वमुच्चै शिरसां सतीव ||”
ज्ञान
योग और तप के प्रतिमान भगवान शिव के ऐश्वर्य का कारण आदिशक्ति हिमालय की दुहिता
हैं | पार्थिव शक्ति एवं प्राकृतिक वैभव का पर्याय है
पार्वती | राजा हिमालय ने मैना से विवाह किया और मैनाक नामक
पुत्र को जन्म दिया | उसकी दूसरी सन्तान एक कन्या हुई –
पार्वती – मानों सदाभिलाषा और सदाचार ने मिलकर वैभव को जन्म दिया – “नीताविवोत्साह
गुणेन सम्पत् |” इस कन्या के जन्म से हिमालय पावन एवं सुन्दर
हो गया – उसी प्रकार जिस प्रकार दीपक अपने श्वेत प्रकाश की किरणों से अथवा गंगा
देवलोक के वैभव से पावन और सुन्दर होती है - “प्रभामहत्या शिखयेव दीपस्त्रिमार्गयेव
त्रिदिवस्य मार्गः | संस्कारवत्येव गिरा मनीषी तया स पूतश्च
विभूषितश्च ||”
पार्वती
और शिव अविभक्त रूप में इस देश के जीवन दर्शन के साक्षात् प्रतीक बन गए हैं | यही जीवन दर्शन देवताओं के सेनानी स्कन्द को भी जन्म देता है तो आसुरी
शक्तियों को अग्नि की भाँति संहृत करने वाले, समस्त कलाओं
विद्याओं और संस्कृति के भण्डार जगवन्दन गणपति को भी जन्म देता है | स्कन्द और गणेश की इस संस्कृति में अखण्ड जीवन का विश्वास है | उसमें निषेध नहीं है | गजाजिन भी दुकूल बन जाता है
और भस्म भी विभूति बन जाती है | इस प्रकार हिमालय का स्मरण
भारत की समग्र दृष्टि का स्मरण है | क्योंकि यह हिमालय के
वात्सल्य से विकसित हुई है |
हिमालय
के प्रति संस्कृत के साहित्यकारों की भक्ति विगलित भावना रही है | क्योंकि हिमालय – हिम-आलय – अर्थात् सात्त्विक शान्ति का भण्डार है |
यह कोल किरातों को भी गले लगाता है और ऋषि मुनियों के चरणों का भी
सेवक है | वह रक्त पिपासु नहीं है | उसमें
आँख से आँख मिलाने पर सामने से आक्रमण करने वाले केसरी सिंह तो हैं, किन्तु छिपकर आक्रमण करने वाले वृक अर्थात भेड़िये नहीं हैं | वह उदात्त गुणों की कसौटी है – दूसरों को पराजित करने का दानवी बल नहीं है
| हिमालय उखाड़ कर फिर रोपने में विश्वास करता है | वह एक ऐसे शान्त चित्र का उन्नयन है जो अपना प्रदर्शन नहीं करता | समय आने पर अत्यन्त सहज भाव से पराक्रम का परिचय देता है | उसकी शक्ति शिव से संयुक्त है | यह इस भूमण्डल की उस
वैचारिक धारा का पुंजीभूत स्रोत है जो अपराजेय है | यह
तारकासुर से आक्रान्त देवताओं को आश्वासन देता है और चाहता है कि देवता स्वयम् उस
शक्ति का वहन करने में समर्थ हों | किन्तु वह शक्ति कठिन
संकल्प, पश्त्ताप के तीव्र बोध और सर्वस्व त्याग से ही पूर्ण
हो सकती है |
हम
जानते हैं कि हमारी आध्यात्मिकता, धर्म, विज्ञान, साहित्य, कला और
संस्कृति यहाँ तक कि हमारा जीवन भी हिमालय का ही वरदान है | तथापि
हम इसकी महत्ता का आकलन करने में असमर्थ हो गए हैं | हमारी
बुद्धि कुछ थोथे आदर्शों के वृत्त में घिर कर इतनी बौनी हो गई है कि हिमालय हमारे
जिन आदर्शों का देवता है हम केवल जिह्वा से ही उसका जयघोष करके सन्तुष्ट हो जाते
हैं | परिणामस्वरूप हम पराजित और तिरस्कृत होते हैं |
हम अपनी इस ग्लानि से तभी मुक्त हो सकते हैं जब हिमालय के आदर्शों
को अपने जीवन में पुनः जागृत करें | उसका सम्मान और उस पर
गर्व करना सीखें | इस पुनर्जागरण के लिये तथा इस सम्मान और
गर्व की भावना को अपने मन में स्थान देने के लिये हिमालय की महत्ता, पावनता, दिव्यता और विराटता का बोध हमारे लिये
नितान्त अनिवार्य है | क्योंकि हिमालय मानवीय भावनाओं से ओत
प्रोत है तथा सत्य-शील और सदाचार का उदात्त पाठ पढ़ाता है...