तथाकथित “भावनाओं” के सम्बन्ध में एक अत्यन्त
सारगर्भित और रोचक लेख...
भावनिस्तान - डॉ दिनेश शर्मा
मुझे लगता है कि हम हिंदुस्तानी कम भावनिस्तानी
ज्यादा होते जा रहे हैं। ऐसा मैं इस लिए कह रहा हूँ कि बहुत सारे लोग, धर्मगुरु, लीडर, अखबार ,
टेलीविजन चैनल और अन्य दूसरे माध्यम भी सालों से यही सिद्ध करने में
तुले हुए है । पहले तो मुझे भी ये सब बकवास लगता था पर पता नही कैसे मुझे यकीन
दिला दिया गया है कि असल बात भारतीयता की नही बल्कि भावनीयता की है ।
मुझे मालूम है कि आप थोड़े असहज होने शुरू हो गए
हैं कि मैं क्या बकवास कर रहा हूँ । तो मेहरबान कद्रदान ज़रा गौर करें ;
एक फ़िल्म रिलीज होनी थी , नाम था पद्मावत । तो बड़ा जोरों से हल्ला होना शुरू हुआ कि लोगों की (मतलब
कुछ लोगों की) 'भावना'
आहत होगी इसलिए फ़िल्म बैन कर दी जाए । धरनों, प्रदर्शन,
अखबारों की हैड लाइंस, टेलीविजन की बाइट्स के
बाद उन लोगों ने भी जो भूले भटके ही फिल्मे देखते है, मान
लिया कि 'भावनाएं' आहत होंगी इसलिए
फ़िल्म को बैन कर दो । आखिरकार भावनाओं के चलते पूरे देश में तो नही पर एक राज्य के
सिनेमाघरों में फ़िल्म बैन हो गयी - सब के लिए यानी निरपेक्ष भावनाओं वालों के लिए
भी ।
ऐसे ही 'भावनाएं
आहत होने के चक्कर में' सलमान रशीदी की किताब सेटेनिक वर्सेज,
तस्लीमा नसरीन की 'द्विखांडितो' , ओ पी मथाई की 'रेमिनिसेंसेज ऑफ नेहरू ऐज' तथा और भी बहुत सी किताबे छपने के बाद भी बिकने से बैन हैं । हालांकि ऑनलाइन सब आसानी से उपलब्ध हैं और
लोगों ने पढ़ भी ली हैं । भावनाओं की भावनीयता अभी हाल ही के इतिहास में कितने उलट
पुलट कर चुकी है यह बात भी भुलाए नही भूलती ।
अब जैसे बाबरी मस्जिद वर्सेज राम मंदिर मुद्दे को
लें । कुछ सियासी मुसलमानों की भावनाओं के चक्कर में शाहबानों केस में सुप्रीम
कोर्ट के फैसले को उलट दिया गया और फिर कुछ सियासी हिंदुओं की भावनाओं (?) को कम्पनसेट करने के लिए राम जन्मभूमि का ताला खोल दिया गया । दरअसल
हिंदुओं की बहुत बड़ी तादाद को तो उसी दिन पता चला कि रामजन्म भूमि मंदिर या रामलला
चबूतरा नाम का कोई पवित्र स्थान भी है । ये सब उस खूबसूरत से दिखने वाले
प्रधानमंत्री ने किया जिसने 1984 में सिक्खों के कत्लेआम को पेड़ गिरना कह कर अपनी व्यक्तिगत भावनाओं को कम्पनसेट किया था ।
आजकल तो और भी दिक्कत हो गयी है । कौन सी मूर्ति
लगाने या टूटने से किसकी भावना आहत हो जाए , पता ही नहीं चलता । शहरों के चौराहों पर लगी कुछ मूर्तियां तो इतनी अजीबो
गरीब होती है कि गौर से देखने पर भी बड़ी मुश्किल से अंदाज़ा होता है कि किस की
मूर्ति है । कई बार मैं यह सोच कर पशोपेश में पड़ जाता हूँ कि गलती से ये वाली
मूर्ति अगर टूट गयी या किसी ने तोड़ दी तो इस बात पर भी बहस चलेगी कि आखिर पता तो
चलना चाहिए कि ये मूर्ति किस की है और तब सम्बद्ध लोगों को इकट्ठा करके सूचित किया
जाएगा कि भाई लोगों अब तुम धरने देने और जुलूस निकालने की तैयारी करो क्योंकि
तुम्हारी भावनाएं कल रात आहत हो चुकी है ।
भावनाएं भी अजीब है । कभी ये राजपूत हो जाती है, तो कभी जाट, ब्राह्मण, दलित या
बनिया । हिन्दू मुस्लिम, शिया सुन्नी तो ये अक्सर होती ही
रहती हैं । पर जल्दी से हिंदुस्तानी नही होती । हो सकता है गलती से विदेश में कहीं
हो जाए पर हिंदुस्तान मे नही । विषय से थोड़ा भटकने के लिए माफ करें पर कुछ सालों
पहले की सच्ची घटना है । अमेरिका के एक शहर के एक प्रमुख सीनेटर ने एक आयोजन के
लिए भारतीय समुदाय को आमंत्रित करने का निर्णय लिया । पता लगा कि गुजरात एसोसियशन,
पंजाब मंच, बंगाल संस्था, साउथ इंडियन असोसियेशन वगैरा वगैरा बहुत से भारतीय समुदाय तो है पर कोई एक
साझा इंडियन या भारतीय मंच नही है । इसमे सबसे दिलचस्प बात यह हुई कि पहले बिहार
का एक ही मंच था पर सन 2000 में बिहार के बंटवारे के बाद अलग से झारखंड मंच बन गया
। और ये सब 'लोगों' की भावनाओं की वजह
से ही होता रहा है ।
आखिर में एक अनपढ़ किसान का किस्सा, जो आप सब ने पहले भी कहीं ज़रूर पढ़ा या सुना होगा, सुनाने का मन हो रहा है । तो हुआ
यूं कि जब गणेश जी की बहुत दिनों तक पूजा करने के बाद भी उस भोले किसान का मनचाहा
काम नही बना तो किसी पंडित के कहने पर उसने हनुमान जी की पूजा करनी शुरू कर दी ।
दोनो मूर्तियाँ पास पास थी तो पूजा के दिये, धूप बत्ती का
धुआं और अगर बत्ती की खूशबू गणेश जी की मूर्ति की तरफ भी जा रही थी । उसने सोचा कि
इससे तो हनुमान जी की भावनाएं आहत हो जाएंगी और शायद इस वजह से वे भी मेरा मनचाहा
काम न बनाएं । यह सोच कर उसने गणेश जी की
मूर्ति के नाक में रुई ठूंस दी ।