भोर के केसर जैसी लालिमायुत रश्मि पथ पर
धीरे धीरे आगे बढ़ता / ऊपर उठता सूर्य
संदेसा देता है कि उठो, जागो मीठी नींद से
देखो, पत्तों पर गिरे मोती भी अब / पिघलने लगेंगे धीरे धीरे
छँटने लगेगा निशा का मायावी अन्धकार
और चहचहाने लगेंगे पंछी
सुनाते हुए रात के सपनों की रंगीन कहानियाँ
सोए पड़े पुष्प भी धीरे धीरे नींद से जागकर
खोलने लगेंगे अपनी पंखुड़ियों की स्वप्निल आँखें
गुँजाने लगेगा उपवन भँवरों की मधुर गुन्जारों से
और केसरिया लालिमा की सौतन बनी धवल धूप
पीछे धकेलती हुई उस सूर्यप्रियतमा को
अँगड़ाई लेती जाग जाएगी नींद से
जिसके शीतल ताप से आह्लादित प्रकृति
मुस्कुरा उठेगी / अनावृत करती रात के रहस्यों को
ऐसे में आओ हम भी
अलसाए अंगों को अँगड़ाई लेकर करें शिथिल
भर लें रोम रोम में शीतल मन्द पवन की मादकता
डूबते हुए प्रकृति के इस सुहाने हास-विलास में
जो करती रहती है नित नई संरचना
क्योंकि शीत की ये सुहानी पीत भोर
करती है नवीन आशा का संचार कण कण में…