ध्यान और इसका अभ्यास
ध्यान कोई धार्मिक अनुष्ठान नहीं :
जिस प्रकार पर्वतारोहण के समय पर्वत
के उच्च शिखर तक पहुँचने के लिए सम्भव है कई मार्ग मिल जाएँ, किन्तु लक्ष्य सबका
एक ही होता है – पर्वत के शिखर तक पहुँचना | उसी प्रकार ध्यान की भी अनेकों
पद्धतियाँ हो सकती हैं जो देखने में परस्पर भिन्न प्रतीत हों, किन्तु लक्ष्य सबका एक ही होता है – अपने भीतर ध्यान एकाग्र करने की
स्थिति को प्राप्त करना, स्थिरता और शान्ति प्राप्त करना |
जिस अभ्यास से भी इस स्थिति को प्राप्त करने में सहायता मिले वही अभ्यास करना
चाहिए | बहुत सी प्रामाणिक पद्धतियाँ हैं, और यदि उनसे
आन्तरिक स्थिरता तथा ध्यान केन्द्रित करने में सहायता प्राप्त होती है तो उनकी
प्रामाणिकता के विषय में कोई विवाद ही नहीं है | ध्यान आत्मा और जीवन के भीतरी
स्तर तक पहुँच कर उन्हें समझने का एक व्यवस्थित, लाभदायक और सफलता प्रदान करने
वाला मार्ग है | अतः जब तक गुरु में अहंकार नहीं आता वह ध्यान की किसी पद्धति को
“अपनी स्वयं की” पद्धति कहने का प्रयास नहीं करता और न ही अन्य पद्धतियों को कम
करके आँकने का प्रयास करता है तब तक वह पद्धति सकारात्मक और मूल्यवान है |
आरम्भ में साधक के मस्तिष्क में इतनी
स्पष्टता नहीं होती कि वह अपने लिए उपयुक्त ध्यान की पद्धति का चयन कर सके अथवा
उसे समझ सके | साथ ही बहुत से व्यक्ति ध्यान की प्रामाणिक पद्धति की खोज में एक
गुरु से दूसरे गुरु के पास भटकते रहते हैं और अपना बहुमूल्य समय, ऊर्जा और धन गँवा कर बैठ जाते हैं और अन्त में निराश और कुण्ठित होकर
ध्यान का अभ्यास ही बन्द कर देते हैं |
यहाँ एक बात भी अवश्य समझ लेनी आवश्यक
है कि ध्यान कोई धार्मिक अनुष्ठान भी नहीं है,
न ही किसी धर्म का अंग है | अपितु अपने भीतर के विविध आयामों को खोजने की और अन्त
में व्यक्ति को उसकी प्राकृतिक अवस्था में स्थित करने की एक शुद्ध और सरल
प्रक्रिया है | ध्यान की कुछ परम्पराएँ इस स्थिति को समाधि कहती हैं, कुछ निर्वाण, कुछ सम्बोधि और कुछ मोक्ष | किन्तु
ध्यान की प्रक्रिया में इन समस्त शब्दों और उपाधियों का कोई महत्त्व ही नहीं है |
ध्यान की प्रक्रिया आन्तरिक आध्यात्मिकता सिखाती है न कि किसी धर्म विशेष में
दीक्षित करती है |
https://www.astrologerdrpurnimasharma.com/2019/10/03/meditation-and-its-practices-6/