दिन अथवा वार – पञ्चांग का प्रथम अवयव
पिछले लेख में हमने पञ्चांग के विषय में वार्ता की थी कि किस प्रकार हम लोग अपने दैनिक धार्मिक और आध्यात्मिक कर्तव्यों को पूर्ण करने के लिए तथा अन्य महत्त्वपूर्ण कार्यों का आरम्भ करने के लिए पञ्चांग देखते हैं और उसके प्रमुख अवयव कौन कौन से हैं | शादी ब्याह के लिए, यात्रा आरम्भ करने के लिए, नया कार्य आरम्भ करने के लिए, नूतन गृह प्रवेश के लिए, शिक्षा आरम्भ कराने आदि समस्त कार्यों के लिए मुहूर्त निकालने के लिए पञ्चांग का ही आश्रय लिया जाता है | पञ्चांग आख़िर कहते किसे हैं ? इसका सीधा सा उत्तर तो यही है कि पञ्चांग वैदिक कैलेण्डर होता है जिसमें ग्रहों, नक्षत्रों की दशा व दिशा के आधार पर तिथि, वार त्यौहार आदि का निर्धारण होता है | पञ्चांग में प्रत्येक दिन में पड़ने वाले शुभाशुभ योग एवं
मुहूर्त का विवरण भी होता है |
वैदिक ज्योतिष के पाँच अंग होते हैं, जिन्हें सम्मिलित रूप में पञ्चांग कहा जाता है | ये पाँच अंग हैं – वार, तिथि, नक्षत्र, योग और करण |
हिन्दू मान्यता में तीन प्रकार के पञ्चांग माने जाते हैं – एक चन्द्रमा की गति पर आधारित, दूसरा नक्षत्रों पर आधारित और तीसरा सूर्य की गति पर आधारित | किसी न किसी रूप में ये तीनों ही पञ्चांग भारत के विभिन्न क्षेत्रों में माने जाते हैं | एक वर्ष में बारह माह, एक माह में दो पक्ष – कृष्ण और शुक्ल – उन दोनों पक्षों में पूर्णिमा तथा अमावस्या को मिलाकर पन्द्रह तिथियाँ | एक वर्ष में दो अयन – उत्तरायण और दक्षिणायन | इन दो अयनों में विविध राशियों में 27 नक्षत्र भ्रमण करते रहते हैं | चन्द्रमा के अंशों के घटने बढ़ने से चान्द्र मास होता है जो अलग अलग प्रान्तों में दो प्रकार से माना जाता है – शुक्ल प्रतिपदा से आरम्भ होकर अमावस्या को समाप्त होने वाला चान्द्र मास “अमान्त” – अर्थात अमावस्या को जिसका अन्त हुआ हो – माना जाता है, तथा कृष्ण प्रतिपदा से आरम्भ होकर पूर्णिमा को पूरा होने वाला चान्द्र मास “पूर्णिमान्त” – अर्थात पूर्णिमा को जो पूर्ण हो रहा हो – माना जाता है |
किन्तु ये सारी बातें ज्योतिष की तकनीकी बातें हैं – सिद्धान्त की बातें हैं | जो बहुत गहन हैं | हमें इस विस्तार में नहीं जाना है | अपने पिछले लेख “पञ्चांग – भारतीय वैदिक कैलेण्डर” में हम इस विषय में विस्तार से चर्चा कर चुके हैं | लेख पढ़ने के लिए आप इसके लिंक पर जा सकते हैं |
हम बात करते हैं जन साधारण जिसे समझ सके | माना जाता है कि वैदिक काल में ही पञ्चांग की उत्पत्ति हो चुकी थी | सूर्य को जगत की आत्मा मानकर उस समय जो पञ्चांग होता था वह सूर्य तथा नक्षत्र सिद्धान्त पर आधारित होता था। वैदिक काल के पश्चात् आर्यभट, वराहमिहिर, भास्कर आदि जैसे खगोल शास्त्रियों ने पञ्चांग को विकसित कर उसमें चन्द्रमा के अंशों को भी जोड़ लिया |
वेदों और अन्य ग्रन्थों में सूर्य, चंद्र, पृथ्वी और नक्षत्र सभी की स्थिति, दूरी और गति का वर्णन किया गया है | स्थिति, दूरी और गति के मान से ही पृथ्वी पर होने वाले दिन-रात और अन्य सन्धिकाल को विभाजित कर एक पूर्ण सटीक पञ्चांग बनाया गया | स्थूल रूप में यदि देखा जाए तो काल तथा दिन को नामांकित करने की प्रणाली पञ्चांग है तथा इसके चक्र को खगोलीय तत्वों से जोड़ा जाता है | बारह मास का एक वर्ष और 7 दिन का एक सप्ताह रखने का प्रचलन विक्रम सम्वत से आरम्भ हुआ |
एक मित्र ने एक बार प्रश्न किया था कि सप्ताह के सात दिनों के नाम तथा उनकी गणना का आधार क्या है | आज इसी पर बात करते हैं | पञ्चांग का प्रथम अवयव है दिन अथवा वार – अर्थात सप्ताह के सातों दिन | व्यक्ति मुहूर्त निकालते समय अपनी सुविधा का भी ध्यान रखता है – किस दिन उसके पास समय है और किस दिन नहीं है | अतः सातों दिनों में से जिस दिन उसके पास समय होता है उस दिन का मुहूर्त निकालने का प्रयास हर कोई करता है |
इस प्रकार पञ्चांग के सभी अवयव वैदिक ज्योतिष में अत्यन्त महत्वपूर्ण होते हैं | पञ्चांग के प्रथम अवयव वार अथवा दिनों की बात करें तो पृथिवी और सूर्य से घनिष्ठ सम्बन्ध रखने वाले सात ग्रहों की कक्षाओं अथवा होरा के आधार पर सात वारों अथवा वासरों का नामकरण हुआ है जो समस्त विश्व में प्रचलित हैं | एक अहोरात्र अर्थात दिन और रात्र शब्द से “होरा” शब्द लिया गया है | अर्थात एक सूर्योदय से दूसरे सूर्योदय तक का काल अहोरात्र कहलाता है | इसका प्रथम भाग दिन और द्वितीय
भाग रात्रि कहलाती है | सूर्योदय के समय जिस ग्रह की होरा होती है – जो कि प्रथम दिन की प्रथम होरा से पच्चीसवीं होरा होती है - उसी के नाम पर उस वार का नाम होता है |
समस्त ज्योतिषीय गणना के केन्द्र में पृथिवी होती है जबकि सौर परिवार का केन्द्र सूर्य है जिसके चारों ओर पृथिवी सहित समस्त ग्रह अपनी अपनी कक्षाओं में चक्कर लगाते रहते हैं | किन्तु यदि पृथिवी से देखा जाए तो सूर्य और चन्द्र सर्वाधिक दिखाई देने वाले ग्रह हैं | चन्द्र यद्यपि उपग्रह है, किन्तु अपनी दृश्यता के कारण ही इसे ज्योतिष में ग्रह माना गया है | अपने तेजोमय रूप के कारण सृष्टि के प्रथम होरा का अधिपति सूर्य को माना गया | इसके पश्चात् अपनी कक्षा के अनुसार क्रम
से सभी ग्रह होरा के अधिपति माने गए | ग्रह-कक्षा के सम्बन्ध में माना जाता है कि ब्रह्माण्ड के मध्य में आकाश है | उसमें सबसे ऊपर नक्षत्रों की कक्षा विद्यमान है | फिर क्रम से शनि, गुरु, मंगल, सूर्य, शुक्र, बुध और चन्द्र आते हैं | इस क्रम से गणना करने पर जब प्रथम होरा के स्वामी सूर्य हुए, तब क्रमशः: शुक्र, बुध, चन्द्रमा, शनि, बृहस्पति, मंगल- ये छ: ग्रह अगली छ: होराओं के स्वामी हुए | इसी क्रम में आठवीं होरा के स्वामी पुनः सूर्य हुए | और इसी प्रकार गणना करते हुए चौबीसवीं होरा का स्वामी बुध हो जाता है और उसी के साथ प्रथम अहोरात्र पूर्ण हो जाता है | पच्चीसवीं होरा से फिर नवीन अहोरात्र आरम्भ होता है और इस पच्चीसवीं होरा का अधिपति चन्द्र हो जाता है | अर्थात रविवार से दूसरे दिन की प्रथम होरा चन्द्र की होरा है इसलिए इस दिवस का नाम चन्द्रवासर अथवा सोमवार हुआ | इसी क्रम से सप्ताह के सातों दिनों की गणना और उनके नाम रखे गए | यही क्रम सृष्टि के प्रारम्भ से अब तक चला आ रहा है | इस सन्दर्भ में अथर्ववेद के अथर्व ज्योतिष का श्लोक प्रस्तुत है :
आदित्यः सोमो भौमश्च तथा बुध बृहस्पति: |
भार्गवः शनैश्चरश्चैव एते सप्त दिनाधिपा: ||
ये एक बहुत जटिल वैदिक गणित की प्रक्रिया है जिसके अध्ययन में ही बहुत समय लग जाता है | अतः इस प्रक्रिया के विस्तार में न जाकर केवल इतना ही कहेंगे कि दिन अथवा वार अथवा वासर के नाम पूर्ण रूप से वैज्ञानिक गणितीय प्रक्रिया पर आधारित हैं और पञ्चांग का प्रथम अवयव हैं |
अन्त में सदा की भाँति यही कहेंगे कि जीव मात्र तथा प्रकृति के प्रति उदारता का भाव रखते हुए हम सभी पूर्ण निष्ठा के साथ अपने कर्तव्य कर्मों को करते रहें ताकि प्रगतिशीलता बनी
रहे...