द्वादश ज्योतिर्लिंगों में प्रमुख काशी-विश्वनाथ मंदिर अनादिकाल से काशी में है। शास्त्रों में वर्णन मिलता है कि भगवान शिव की दिव्य ज्योति बाबा विश्वनाथ के रूप में पिंड में साक्षात दिखाई पड़ती थी। इसीलिए आदिलिंग के रूप में अविमुक्तेश्वर को ही प्रथम लिंग माना गया है। इसका उल् लेख महाभारत और उपनिषद में भी किया गया है।
श्री काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग दो भागों में हैं, दाहिने भाग में शक्ति के रूप में मां भगवती विराजमान हैं और दूसरी और भगवान शिव वाम रूप (सुंदर ) में विराजमान हैं, इसीलिए काशी को मुक्ति क्षेत्र कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि देवी भगवती के दाहिने ओर विराजमान होने से मुक्ति का मार्ग केवल काशी में ही प्रशस्त होता है और भक्त को पुनः गर्भधारण नहीं होता, भगवान शिव खुद यहाँ मृत्यु काल में तारक मंत्र देकर लोगों को तारते हैं।
बाबा विश्वनाथ दरबार में गर्भ गृह में शिखर की ओर गुम्बद में श्री यंत्र मंडित है, इसलिये यह तांत्रिक सिद्धि के लिए सर्वोत्तम स्थान है इसीलिए इसे श्री यंत्र-तंत्र साधना के लिए प्रमुख माना जाता है। तंत्र के दृष्टि से बाबा विश्वनाथ के दरबार में चार प्रमुख द्वार है जो इस प्रकार हैं… 1- शांति द्वार 2- कला द्वार 3- प्रतिष्ठा द्वार 4- निवृत्ति द्वार। इन चारों द्वारों का तंत्र में अलग ही स्थान हैं। पूरी दुनिया में कहीं भी ऐसा नहीं मिलेगा जहाँ शिव-शक्ति एक साथ विराजमान हों और तंत्र द्वार भी हो।
इतने महत्व के स्थान का ईसा पूर्व 11वीं सदी में राजा हरीशचन्द्र ने जिस विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था उस मंदिर का काल के प्रवाह में क्षीण होने पर पुनः सम्राट विक्रमादित्य ने जीर्णोद्धार करवाया गया था । उसे 1194 में मुहम्मद गौरी द्वारा लूटने के बाद तोड़ा दिया गया । इस मंदिर का फिर से काशी नरेश द्वारा पुनः निर्माण करवाया गया, लेकिन एक बार फिर इसे सन् 1447 में जौनपुर के मुगल सुल्तान महमूद शाह द्वारा तोड़ दिया गया । पुनः 138 वर्ष बाद 1585 में पंडित नारायण भट्ट के आग्रह पर राजा टोडरमल की सहायता से इस भव्य मंदिर का निर्माण किया गया । जिसे पुनः तोड़ने के लिए सन् 1632 में शाहजहां ने सेना भेज दी। सेना हिन्दुओं के प्रबल प्रतिरोध के कारण काशी विश्वनाथ मंदिर के केंद्रीय मंदिर को नहीं तोड़ सकी, लेकिन काशी के 63 अन्य मंदिरों को तोड़ दिए गया ।
18 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने अपने पिता के अधूरे कार्य को पूरा करने के लिये एक शाही फरमान जारी कर काशी विश्वनाथ मंदिर ध्वस्त करने का आदेश दिया । यह फरमान एशियाटिक लाइब्रेरी, कोलकाता में आज भी सुरक्षित है। 2 सितंबर 1669 को औरंगजेब को मंदिर तोड़ने का कार्य पूरा होने की सूचना दी गई थी | औरंगजेब के आदेश पर यहां का मंदिर तोड़कर एक ज्ञान वापी मस्जिद ( मदरसा के साथ ) बनाई गई | जिसमें औरंगजेब के आदेश पर प्रतिदिन हजारों ब्राह्मणों को मुसलमान बनाने व उनसे नवाज़ करवाने का आदेश भी पारित किया गया था। ब्राह्मणों से नये बने हुये मुसलमानों को अतिरिक्त सुरक्षा व सम्मान औरंगजेब के शाही आदेश पर दिया गया | इस क्षेत्र के 99 प्रतिशत मुसलमानों के पूर्वज हिन्दू हैं |
अंग्रेजों के शासनकाल में सन् 1752 से लेकर सन् 1780 के बीच मराठा सरदार दत्ताजी सिंधिया व मल्हारराव होलकर ने मंदिर को मुसलमानों से मुक्ति कराने का प्रयास किया और ज्ञानवापी मस्जिद के निकट पुनः भव्य मंदिर का निर्माण करवाया | जिस पर आज भी पूजा होती है | 1777-80 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होलकर द्वारा इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया गया था | जिसके लिये पंजाब के महाराजा रणजीत सिंह ने सोने का छत्र बनवाया | ग्वालियर की महारानी बैजाबाई ने ज्ञानवापी का मंडप बनवाया था और महाराजा नेपाल ने वहां विशाल नंदी की प्रतिमा स्थापित करवाई थी ।
सन् 1809 में काशी के हिन्दुओं ने जबरन बनाई गई मस्जिद पर कब्जा कर लिया था क्योंकि यह संपूर्ण क्षेत्र ज्ञानवापी मंडप का क्षेत्र है | बढ़ते विवाद को देखते हुये 30 दिसंबर 1810 को बनारस के तत्कालीन जिला दंडाधिकारी मि. वाटसन ने ‘वाइस प्रेसीडेंट इन काउंसिल’ को एक पत्र लिखकर ज्ञानवापी परिसर हिन्दुओं को हमेशा के लिए सौंपने को कहा था, लेकिन यह कभी संभव नहीं हो पाया |
काशी विश्वनाथ मंदिर का हिंदू धर्म में एक विशिष्ट स्थान है। ऐसा माना जाता है कि एक बार इस मंदिर के दर्शन करने और पवित्र गंगा में स्नान कर लेने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इस मंदिर में दर्शन करने के लिए आदि शंकराचार्य, सन्त एकनाथ, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, महर्षि दयानंद, गोस्वामी तुलसीदास आदि अनेक सन्तों का आगमन हुआ हैं।