वेद ों में परिवर्तन नही हो सकता है |(वेद की आंतरिक साक्षी के आधार पर )
वेदों में परिवर्तन या क्षेपक नही हो सकता है इसकी आंतरिक
साक्षी स्वयम वेद देता है -
" ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्यस्मिदेवा अधि विश्वे निषेदू: |
यस्तन्न वेद किमचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्त इमे समासते ||
- ऋग्वेद १/१६४/३९
अर्थ - ऋचाये (वेद मन्त्र ) अविनाशी ओम में स्थित है | जिस में सारे देव स्थित हुए है | जो उस अविनाशी को नही जानता वह ऋचाओं से क्या करेगा | जो ही उसे जानते है वे ही अमृत में स्थित है |
इस मन्त्र की व्याख्या निरुक्त में यास्क ऋषि शाकपुर्णी ऋषि और कौषतिकी ब्राह्मण के प्रमाण से करते है -
" ऋचो अक्षरे परमे व्यवने यस्मिन्देवा अधिनिन्णा: सर्वे| यस्तन्न वेद कि स ऋचा करिष्यति | य इत्तद्विदुस्त इमे समासते इति विदुष उपदिशति | कतमत्तदेतदत्तक्षरम | ओमित्येषा वागिति शाकपुणि: |
ऋचश्च अक्षरे परमे व्यवने धीयन्ते | नानादेवतेषु च मन्त्रेषु |
अर्थ - ऋचाये परम अक्षर में विशेष रक्षित है |
यहा अक्षर क्या है ?
इसी पर १३/१२ में यास्क लिखते है - अक्षर न क्षरति | न क्षीयते वा | अर्थात जो क्षीण नही होता और नष्ट नही होता |
इससे ईश्वर,जीव और प्रक्रति तीनो अक्षर हुए |
ईश्वर और जीव के अक्षर होने की पुष्टि भगवतगीता भी करती है -
द्वाविमौ पुरुषो लोके क्षरश्चाक्षर एव च |
क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोSक्षर उच्यते ||
उत्तम पुरुषस्तवन्य: परमात्मत्युदाहृत: |
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वर: || (गीता १५ /१६-१७ )
अर्थात जगत में दो पदार्थ है क्षर और अक्षर | कार्य जगत क्षर है और ह्रदय गुहा में रहने वाला जीव अक्षर है और उससे भी उत्तम तीनो लोको को धारण करने वाला ईश्वर परम पुरुष अक्षर है |
अक्षर ब्रह्म परम स्वभावोSध्यात्ममुच्यते (गीता ८/३ )
परम पुरुष ईश्वर अक्षर है उसके परम स्वभाव को अध्यात्म कहते है |
इनसे स्पष्ट है कि अक्षर जीव ,ईश्वर और प्रक्रति के लिए प्रयुक्त हो सकता है |
यास्क ने यहा परम अक्षर लिखा है परम शब्द से इस मन्त्र में ईश्वर का ग्रहण होगा | अर्थात ऋचाये परम अक्षर ईश्वर में विशेष रूप से रक्षित है | जिस में सारे देव स्थित है | जो उसे नही जानता वो ऋक का क्या करेगा | जो उसे जानते है वो विद्वानों के प्रति उपदेश करता है कि वह अक्षर कौनसा है ? ओम ही वह अक्षर है यह शाकपुणि कहते है |
छान्दोग्योपनिषद् और अन्य उपनिषद में ओम को ईश्वर का नाम कहा है | इसे प्रणव और उद्गीत भी कहते है | योगदर्शन कार पतंजली मुनि कहते है -तस्य वाचक प्रणव: अर्थात ईश्वर का वाचक प्रणव ओम है | इसी को शाकपुणि ऋषि परम अक्षर कहते है |मह्रिषी दयानंद सरस्वती जी ओम को ईश्वर का निज नाम कहते है |
वे सत्यार्थ प्रकाश प्रथमसमुल्लास में लिखते है -
" ओ खम्ब्रह्म (यजु. ४०/१७ )
ओमित्येतदक्षरमुद्गीथमुपासीत -छान्दोग्योपनिषद्
- आकाशवत व्यापक होने से सबसे बड़ा होने से ईश्वर ओम का नाम ब्रह्म है |
-ओम जिसका नाम और जो कभी नष्ट नही होता ,उसी की उपासना करना योग्य है अन्य की नही |
इस तरह ओम ईश्वर का वाचक है |
शाकपुणि आगे कहते है - ऋचाये निश्चय ही उस अविनाशी परम अक्षर में स्थित है |
नाना देवताओं वाले मन्त्रो में यह अक्षर है | इससे सारी त्रिविद्या है यह ब्राह्मण कौषतिकी ब्राह्मण में कहा गया है |
यास्क ऋषि ने शाकपुणि और ब्राह्मण ग्रन्थ के प्रमाण से बताया कि ऋचाये परम अक्षर में सुरक्षित है | मैंने परम अक्षर और ओम को ईश्वर के लिए सिद्ध किया | इससे स्पष्ट होता है कि सभी वैदिक ऋचाये ईश्वर में सुरक्षित है | वेद ईश्वर का ज्ञान है अर्थात यह नित्य है क्यूंकि ईश्वर के नित्य होने से उसका ज्ञान भी नित्य ही होगा | ईश्वर में कोई परिवर्तन नही होता है इससे उसके ज्ञान उसके नियमो जों मानव के लिए ४ ऋषियों पर ऋग्वेद ,यजुर्वेद ,सामवेद और अर्थववेद नाम से प्रकाशित हुआ में भी कोई परिवर्तन नही हो सकता है | स्वयम मन्त्र इस बात को स्पष्ट कर रहा है कि ऋचाये परम अक्षर में रक्षित है |अत: वेद कभी भी किसी भी उपाय से नष्ट नही हो सकते है क्यूंकि वे सर्वव्यापक ,सर्वज्ञानी ओम में स्थित है |