दुनिया जब इतनी तेज़ नहीं थी. और डिजिटल के नाम प र पेट्रोल पंप और पीसीओ पर पैसा दिखाने वाली मशीन बस होती थी. कुछ थे कि जिनके पास डिजिटल घड़ी भी होती थी. तब और तब के पहले भी दुनिया के काम चलते थे. लोग पैदा होते, और मरा करते. माने सिर्फ इतना ही नहीं करते, इस बीच शादी भी करते, बच्चे भी करते. जब ऐसा कुछ करते निमंत्रण आता. वहां पहुंचो तो भोज भी होता, उसमें खाना मिलता. खाना जो होता वो आज जैसे न मिलता. बुफे का हिसाब न था. बैठ के भी खाते तो प्लेट जो है अब जैसे डिस्पोजल वाली न होती.
प त्तल मिला करती थीं, और कुछ गाढ़ा-पतला हो, रायता-तस्मई जैसी चीज हो तो उसके लिए दोना मिलता. पत्तल पहले एक दम सपाट गोल सी मिला करती. एक दम हरे पत्ते की, चाहो तो खाने के ठीक पहले धो भी लो. फिर उसमें भी तकनीक आई.
अगर बगल दो-तीन खंधे दिये जाने लगे. एक में अचार रख लो, एक में बूंदी, एक में कोंहड़ा की सब्जी और बड़े वाले में दाल-चावल सान लो, खूब जगह रहती और खाना भी सलीके से हो जाता. खा चुके तो उठो. अपनी पत्तल और दोना उठाओ खुद पछीती में फेंक आओ.
अभी इसकी बात यूं चल रही है कि एक वीडियो पर नज़र पड़ी. आज कल ये विभिन्न माध्यमों से वायरल हो पड़ा है. इसमें ये दिखाया गया है कि कैसे जर्मनी में भी पत्तलों का नेचुरल लीफ प्लेट्स कह कर भरपूर उत्पादन हो रहा है. वहां हाथोंहाथ ली जा रही है. गल जाती है, नेचुरल है. प्रदूषण नहीं करती. लोगों को भली लगती है, और हम हैं कि भुलाए बैठे हैं.
source: http://www.thelallantop.com/
loading...