हिंदू धर्म में एकादशी का व्रत महत्वपूर्ण स्थान रखता है । प्रत्येक वर्ष चौबीस एकादशियाँ होती हैं । जब अधिकमास या मलमास आता है तब इनकी संख्या बढ़कर 26 हो जाती है । वैदिक ज्योतिष के अनुसार सारी ही एकादशी किसी न किसी रूप में भगवान विष्णु से ही सम्बन्ध रखती हैं | विष्णु पुराण और पद्म पुराण के अनुसार भगवान भास्कर जब धनु राशि में संचार कर रहे थे तभी ग्यारहवें दिन मुर नाम का राक्षस विष्णु का वध करने आया | भगवान विष्णु उस समय बद्रिकाश्रम की एक गुफा में शयन कर रहे थे | तब उनसे निसृत शक्ति “हेमावती” ने उस राक्षस को भस्म करके विष्णु तथा अन्य देवताओं की रक्षा की | विष्णु ने प्रसन्न होकर उस शक्ति का नाम “एकादशी” अर्थात जो ग्यारहवें दिन उत्पन्न हुई हो – रखा | इसीलिए कई स्थानों की स्थानीय भाषाओं में एकादशी को “ग्यारस” भी कहा जाता है | माना जाता है कि आज के दिन भगवान विष्णु स्वर्ग अर्था “वैकुण्ठ” के द्वार सभी के लिए खोल देते हैं |
पद्मपुराण में भगवान कृष्ण ने सभी एकादशी के माहात्म्य का विस्तार से वर्णन किया है | उस वर्णन के अनुसार इस एकादशी को “पुत्रदा एकादशी” भी कहते हैं :
एकचित्तास्तु ये मर्त्याःकुर्वन्ति पुत्रदा व्रतम्, पुत्रान्प्राप्येहलोके तु मृतास्ते स्वर्गगामिनः
पठनात् श्रवणात् राजन् अग्निष्टोमफलं लभेत् – पद्मपुराण उत्तरखण्ड 42/53
जो व्यक्ति इस व्रत को एक चित्त होकर करते हैं उन्हें इस लोक में पुत्र की प्राप्ति होती है और मृत्योपरान्त वे स्वर्ग के भागी होते हैं | जो व्यक्ति इस एकादशी के माहात्म्य का पठन अथवा श्रवण करता है उसे अग्निहोम का फल प्राप्त होता है |
वास्तव में तो जितने भी व्रत उपवास आदि पुराणों में बताए गए हैं उन सबका अभिप्राय व्यक्तियों को अपने दुर्गुणों पर विजय प्राप्त करके आत्मसाक्षात्कार की ओर अग्रसर करना ही रहा है | यहाँ भी राक्षस मुर व्यक्तियों के भीतर निहित तामसी गुणों का प्रतिनिधित्व करता है – जिनके कारण व्यक्ति में अभिमान, झूठ, लालच, वैमनस्य आदि न जाने कितने दुर्गुण घर कर जाते हैं | इन दुर्गुणों पर विजय प्राप्त कर हो जाती है तो व्यक्ति में सत्व गुण की प्रधानता हो जाती है और धीरे धीरे उसे मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है – अर्थात उसे आत्मसाक्षात्कार हो जाता है |
ऐसी भी मान्यता है कि इसी दिन भगवान श्री कृष्ण ने महाभारत के युद्ध में अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था |
जो भी मान्यताएँ हों, किसी भी अन्धविश्वास का शिकार हुए बिना इन समस्त व्रत उपवासों मे मूल में निहित चरित्र शुद्धि और सदाचार की भावनाओं को अंगीकार करके अपने समस्त कर्म पूर्ण निष्ठा के साथ करते हुए हम सब अपने लक्ष्य को प्राप्त हों…