*जय श्रीमन्नारायण*
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*गुरु ही सफलता का स्रोत*
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*भाग:-४*
*गतांक से आगे------*
*अनुभवति हि मूर्ध्ना पादपस्तीव्रमुष्णं।*
*शमयति परितापमं छायया संश्रितानाम्।।*
(अभिज्ञान शाकुंतलम:५/7)
अर्थात:- वृक्ष अपने सिर से तो तीव्रउष्णता का अनुभव करता है पर अपने आश्रितों के ताप को छाया से दूर करता है अर्थात स्वयं कष्ट उठाकर दूसरों के दुखों को दूर करते हैं वास्तव में असली अर्थ में अगर कहा जाए दो गोभी उसी प्रकार से अपने शिष्यों के लिए समाज के लिए ठीक वृक्ष की भांति सदैव सामाजिक कल्याण के लिए उपस्थित रहता है गुरु कहते हैं कितने जन्म लेकर कोई महान कार्य नहीं किया तुम्हारा जन्म तो एक संयोग है तुम्हारा जन्म लेना कोई युगांत कारी घटना नहीं है यह घटना तो तब बनेगी जब तुम आनंद के अक्षय भंडार से अपने आप को आप्लावित कर सकोगे जब तुम गुरु के पास जाने की एक तरफ पैदा करोगे जब जीवन की जटिलताओं से निकलकर उस आनंद प्रवाह के पास बैठने की इच्छा होगी जब तुम अपने शरीर में प्राणों की चेतना दे सकोगे सब तुम्हारे प्रयत्नों से संभव है यह सब तुम्हारे करने से ही हो सकता है क्योंकि *गुरु समुद्र बताओ अपनी जगह स्थिर खड़े हैं अपनी बाहें फैलाए प्रत्येक नदी को अपने आप में समेटने के लिए आतुर हैं आवश्यकता है तुम्हें नदी बनने की लहरा के दौड़ के उफनाती दौड़ती हुई समुद्र की बाहों में अपने आप को विसर्जित कर देने की अपना अस्तित्व मिटा देने की है और जब तुम ऐसा कर सकोगे तब तुममें एक नया गुण पैदा होगा एक नया शंकराचार्य पैदा होगा एक नया वशिष्ठ या विश्वामित्र पैदा होगा जो तपश्चार्य तंत्र साधना आदि को जीत कर भ्रम का साक्षात्कार करके स्वयं का वा समाज का कल्याण करेगा*
पर गुरुदेव यही तो चाहते हैं और यह तभी संभव है जब गुरु के प्राणों से अपने प्राण जोड़ सको उनके हृदय से अपने हृदय को एकाकार कर सको मेरे अंदर अपने आप को समाहित कर सको मेरे इस आनंद के प्रवाह में मस्ती के साथ स्नान कर सकूं जब तक गुरु का नश्वर शरीर तुम्हें दिखाई देगा तब तक ऐसा नहीं हो पाएगा क्योंकि गुरु *अखंड मंडलाकाराम व्याप्तम येन चराचरम्* अर्थात:-
जो अखंड मंडला कार ब्रह्मांड में सर्वत्र समान रूप से व्याप्त है सभी चल और अचल सजीव निर्जीव समस्त वस्तुओं में ब्रह्म रूप से निर्विकार भाव से बसता है सभी को अपना संरक्षण देता है सभी का कल्याण करता है वह तुम्हारा क्यों नहीं करेगा तुम उनके बनकर तो देखो भगवान यादवेंद्र सरकार श्री कृष्ण चंद्र जी महाराज ने अपने गुरु माता के केवल इच्छा व्यक्त करने पर यमराज के यहां जाकर गुरु पुत्र को वापस लेकर आए यह गुरु और शिष्य का कर्तव्यनिष्ठ उदाहरण है दोनों अपने अपने धर्म का पालन करते हुए एकाकार हो गए तुम्हारी दो आंखें अवश्य खुली परंतु तीसरी आंख अर्थात दिव्य चर्च बंद है जब तुम कुछ क्षण खाली होते हो तो स्वप्नलोक में खो जाते हो हजारों लाखों मनुष्य इस प्रकार दिवा सपनों में खो कर अपना जीवन वितरित करते हैं अमेरिका में वित्त 20 बार विवाह करता है हर बार तलाक लेता है कौन सोचता है कि अगली बार अवश्य ही उसी वैवाहिक सुख प्राप्त होगा परंतु सत्य है कि अगर उसे सुख की आकांक्षा है तो पहले भी वह द्वारा ही प्राप्त कर लेता जिसे वह असली सुख समझता है वह मात्र उसकी कल्पना है अब जब आप इन कल्पनाओं से परे होकर दिव्य चक्षु को खोलना चाहेंगे तो यह कार्य गुरु कृपा से ही संभव है वही आपके छठी इंद्री अर्थात आज्ञा चक्र तीसरे नेत्र को खोलकर आप इस ब्रह्मांड में होने वाली समस्त घटनाओं को देखने के लायक बना देते हैं जैसे एक इंजीनियर एक चल भाष यंत्र अर्थात मोबाइल फोन बनाता है तो वह फोन वायु में तैरने वाली विशिष्ट ध्वनि तरंगों को हवा से चुनकर दूसरे फोन में पहुंचा कर श्रवण करता के कानों तक पहुंचाता है *ठीक उसी प्रकार गुरु भी हमारे आज्ञा चक्र को जागृत करके हमारे जीवन को निर्मल बनाकर वायुमंडल में उपस्थित दिव्य तरंगों से और दिव्य शक्तियों से हमारा परिचय करवाते हैं* हमें उन्हें सुनने देखने समझने और वार्ता करने की शक्ति प्रदान करते हैं यह सिर्फ और सिर्फ गुरु कृपा से ही संभव हो सकता है हम जितना गुरुदेव के श्री चरणों में समर्पित होंगे उतना ही अधिक हमें तपाया जाएगा और जितना हम तपेंगे उतनी ही चमक उत्पन्न होगी और गुरुदेव तो यही चाहते हैं ना वह हमें लोहे से सोना और सोने से कुंदन बना देना चाहते इसीलिए वह में कठोर से कठोर आज्ञा देते हैं ऐसे कार्य करते हैं जिससे हम विचलित हो हमारे अंदर के दुर्गुण निकल कर बाहर आ सके और गुरुदेव उन दुर्गुणों को समाप्त करके सात्विक गुणों और हमारे अंदर देवत्व भरना चाहते हैं हम कितने सौभाग्यशाली होंगे कि हमें गुरु की शरण प्राप्त हुई और गुरुदेव हमारे ऊपर कृपालु हैं उनकी कृपा सदा ही ऐसे बरसती रहे।
यदि आपके हृदय में गुरु नहीं है तो गुरु आपके शरीर के पास भी नहीं रह सकता यह संभव है भी नहीं उनको शरीर से जोड़कर रखने की जरूरत है भी नहीं उसको अपने हृदय में धारण करने की जरूरत है ऐसी स्थिति में गोरखनाथ जी ने अपने श्लोक में कहा है
कि व्यक्ति जब अकेला पैदा होता है क्या उसके साथ चाचा दादा मामा सब पैदा होते हैं सब मेरे साथ हैं क्या सब उसके साथ मरते सात तब भी समझ सकता है इस समाज उसके साथ है पत्नी मर रही है साथ में वह चिता पर लेटी है लेकिन ऐसा है नहीं वह अकेला आया था अकेला गया जिसके शरीर पर वस्त्र का एक टुकड़ा भी साथ नहीं जा सका फिर कोई किया जाएगा हम इस बीच में हम इस जाल में क्यों लगे हुए हैं इसमें उलझ कर हम अपने आप को बहुत बुद्धिमान समझते वास्तव में हम बुद्धिमान नहीं अपितु महामूर्ख होते परंतु जब मन शुद्ध हो गा यदि आपके अंदर गुरु विद्यमान होगा तो वहां हर पग पर आपका पथ प्रदर्शक बनकर आपको उचित और अनुचित के बारे में बताता रहेगा यही तो गुरु का कर्तव्य है गुरु यही तो चाहता है परंतु यह तभी संभव होगा जब आप अपने गुरु को गुरु की शक्ति को अपने अंदर धारण करें जैसे दूध के अंदर मक्खन और मक्खन में घी विद्यमान रहता है ठीक उसी प्रकार जब गुरु अपने बुद्धिमान होगा तब आप का कल्याण हो सकता है अब आप यदि अपने हृदय में गुरु के प्रति संदेश रूपी खटाई डाल देते हैं तो वह दूध ही फट जाएगा फिर ना तो दही ना मक्खन और फिर घी की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती इसलिए सदैव अपने हृदय में गुरुदेव का स्मरण और सानिध्य प्राप्त करते रहें तभी आप हर मार्ग में विजई होंगे
*क्रमश: :----*
*श्रीमहन्त*
*हर्षित कृष्णाचार्य*
*श्री जगदीश कृष्ण शरणागति आश्रम*
*लखीमपुर- खीरी*
*मो0:- 9648769089*