*श्री यतिराजाय नमः*
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*गुरु हि सफलता का स्रोत*
*भाग ५:-----*
*गतांक से आगे:----*
गुरु के बारे में शास्त्र में कहा गया है--
*गुरूर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः! गुरु साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः*
अर्थात:- वास्तव में ही पूर्णता का दूसरा नाम गुरु है अष्ट महा सिद्धियां गुरु से ही प्रगट होती है समस्त तीर्थ और देवता गुरु के ही चरणों में समाहित होते हैं जो अपने आप में ज्ञान स्वरूप विज्ञान स्वरूप और सत चित स्वरूप होते हैं और जो शिष्यों के चित्त में व्याप्त समस्त प्रकार के अंधकार को समाप्त कर उसे पूर्णता देने में सक्षम होते हैं ऐसे चेतना पुंज सर आप सद्गुरु से ही सायुज्यता प्राप्त करना उसे एकाकार होने की क्रिया उनमें लीन होने की क्रिया को अपना सौभाग्य समझना की पूर्णता है जब गुरु की सायुज्य ता प्राप्त करने का प्राप्त करने का चिंतन करने पर स्वतःही गुरु की चेतना साधक या शिष्य के हृदय में समाहित होने लगती है और वह श्रेष्ठता की तरफ अग्रसर होने लगता है
*त्वं विचित्तं भवतां वदैव देवाभवावोतु भवतं सदैव।*
*ज्ञानार्थ मूल मपरं महितां विहंसि शिष्यत्व एव भवतां भगवदनमामी।।*
अर्थात:- जीवन का श्रेष्ठ तत्व शिष्य होता है संपूर्ण ब्रह्मांड में यदि सबसे उच्च कोटि का कोई शब्द है तो वह शब्द शिष्य है शिष्य का मतलब यह नहीं है कि वह गुरु से दीक्षा लिया हुआ व्यक्ति हो शिष्य का मतलब है जो प्रत्येक क्षण नवीन गुणों का अनुभव करता हुआ अपने जीवन में उतारता हो वह शिष्य है बालक भी शिष्य है जो मां के गुणों को अपने जीवन में उतारता है देख कर के अनुरूप बनता है
*गुरु क्या करते हैं इस बात पर शिष्य का ध्यान नहीं होना चाहिए श्रेष्ठ शिष्य वही है जोकि जो गुरु कहते हैं वह करें और विचार करें जो कुछ करते हैं गुरु करते हैं यह सब क्रियाकलाप उन्हीं की माया का हिस्सा है मैं तो मात्र उनका दास हूं एक निमित्त मात्र हूं जो यह भाव अपने मन में रख लेता है वह शिष्यताके उच्चतम सेवाओं को प्राप्त कर लेता है* गुरु से बढ़कर न शास्त्र हैं न तपस्या और ना ही सर्वादि नाही मंत्र ना मोक्ष एकमात्र गुरुदेव जी सर्वश्रेष्ठ है उपनिषद कहते हैं:-
*न गुरोरधिकं न गुरोरधि के न गुरोरधिकं न गुरोरधिकं*
*शिव शासनत: शिव शासनतः शिव शासनतःशिव शासनतः*
जो इस वाक्य को अपने मन में बिठा लेता है वह अपने आप ही शिष्य शिरोमणि बनकर गुरुदेव का अत्यंत प्रिय हो जाता है गुरु जो भी आज्ञा देते हैं उसके पीछे कोई रहस्य अवश्य होता है अतः शिष्य को बिना किसी संशय के गुरु की आज्ञा का पूर्णतया अविलंब पालन करना चाहिए क्योंकि शिष्य इस जीवन में क्यों आया है इस युग में क्यों जन्मा है वह इस पृथ्वी पर क्या कर सकता है इस सब का ज्ञान केवल गुरु ही करा सकते हैं शिष्य को ना तो गुरु की निंदा करनी चाहिए और ना ही निंदा सुननी चाहिए यदि कोई गुरु की निंदा करता है तो शिष्य को चाहिए वह अपने वागबल अथवा सामर्थ से उसे परास्त करें यदि ऐसा नहीं कर सके तो उसे ऐसे लोगों की संगत त्याग देनी चाहिए मैं *श्रीमहन्त हर्षित कृष्णाचार्य*
समर्थन करता हूं कि गुरु निंदा सुन लेना भी उतना दोषपूर्ण है जितना कि गुरु निंदा करना श्री रामचरितमानस में परम आदरणीय कवि कुल शिरोमणि गोस्वामी बाबा ने स्पष्ट लिखा है *हरि गुरु निंदा सुनाई जो काना पाप होय गो घात समाना*
गुरु की कृपा से आत्मा में प्रकाश संभव है यही वेदों ने भी कहा है यही समस्त उपनिषदों का सार है शिष्य वह है जो गुरु के बताए मार्ग पर चलकर उनसे दीक्षा लाभ लेकर अपने जीवन में चारों पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष को प्राप्त करता है जो शिष्य नहीं बन सकता वह जीवन में कुछ नहीं कर सकता वह जीवन में असफल होकर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है जो शिष्यता नहीं सीख सकता उसके चेहरे पर ओज नहीं आ सकता उसकी चाल में दृढ़ता नहीं आ सकती उसका सिर हिमालय से ऊंचा नहीं बन सकता वह अपने आप में अद्वितीय नहीं बन सकता! *शिष्य जितना गुरु से एकाकार होता रहता है उतना ही गुरु उसको सफलता के मार्ग पर आगे धकेलता रहता है यह शिष्य पर निर्भर है कि वह अपने आप को पूर्ण रूप से समर्पित करता है या अधूरा समर्पित करता है।।।*
*क्रमशः :-------*
*श्रीमहन्त*
*हर्षित कृष्णाचार्य*
*श्री जगदीश कृष्ण शरणागति आश्रम*
*लखीमपुर- खीरी*
*मो0:-9648769089*