★★★प्रणाम निषेध ★★★
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१_दूरस्थं जलमध्यस्थं धावन्तं धनगर्वितम् ।
क्रोधवन्तं मदोन्मत्तं नमस्कारोsपि वर्जयेत् ॥
दूरस्थित, जलके बीच, दौड़ते हुए, धनोन्मत्त, क्रोधयुक्त, नशे से पागल व्यक्ति को प्रणाम नहीं करना चाहिए ॥
२_ समित्पुष्पकुशाग्न्यम्बुमृदन्नाक्षतपाणिकः ।
जपं होमं च कुर्वाणो नाभिवाद्यो द्विजो भवेत् ॥
अर्थात् पूजाकी तैयारी करते हुए तथा पूजादि नित्यकर्म करते समय ब्राह्मण को प्रणाम करने का निषेध है । निवृत्ति के पश्चात् प्रणाम करना चाहिए ॥
३_अपने समवर्ण ज्ञाति एवं बान्धवों में ज्ञानवृद्ध तथा वयोवृद्ध द्वारा प्रणाम स्वीकार नहीं करना चाहिए, इससे अपनी हानि होती है ।
४- स्त्रियों के लिये साष्टाङ्ग प्रणाम वर्जित है । वे बैठकर ही प्रणाम करें ।
[जानुभ्यां च तथा पद्भ्यां पाणिभ्यामुरसा धिया ।
शिरसा वचसा दृष्ट्या प्रणामोsष्टाङ्ग ईरितः ॥
जानु, पैर, हाथ, वक्ष, शिर, वाणी, दृष्टि और बुद्धि से किया प्रणाम साष्टाङ्ग प्रणाम कहा जाता है ॥
परन्तु "वसुन्धरा न सहते कामिनीकुचमर्दनम्" सूत्र के अनुसार स्त्री द्वारा साष्टाङ्ग प्रणाम का निषेध है । अतः उसे बैठकर ही, परपुरुष को स्पर्श न करते हुए, प्रणाम करने का आदेश है ॥ ]
५- गुरुपत्नी तु युवती नाभिवाद्येह पादयोः ।
कुर्वीत वन्दनं भूम्यामसावहमिति चाब्रुवन् ॥
यदि गुरुपत्नी युवावस्था वाली हों तो उनके चरण छूकर प्रणाम नहीं करना चाहिए । 'मैं अमुक हूँ' ऐसा कहते हुए उनके सम्मुख पृथ्वी पर प्रणाम करना चाहिए ॥
[मातृष्वसा मातुलानी श्वश्रूश्चाथ पितृष्वसा ।
सम्पूज्या गुरुपत्नीव समास्ता गुरुभार्यया ॥
मौसी, मामी, सास और बुआ ये गुरुपत्नी के समान पूज्य हैं ॥ कूर्मपुराण एवं मनुस्मृति ॥]
यहाँ कालिदास भी कहते हैं 'प्रतिबध्नाति हि श्रेयः पूज्यपूजाव्यतिक्रमः' अर्थात् पूज्यका असम्मान कल्याणकारी नहीं होता ॥
*श्रीमहन्त*
*हर्षित कृष्णाचार्य*
*श्री जगदीश कृष्ण शरणागति आश्रम लखीमपुर- खीरी*