*‼️जय श्रीमन्नारायण‼️*
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*‼️गुरु ही सफलता का स्रोत ‼️*
*भाग ८:-------*
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*गतांक से आगे:----*
*ब्रह्मज्ञान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात।*
*कौड़ी लागि लोभबस करहि बिप्र गुर घात।।'*
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*अर्थात:-*
(स्त्री-पुरुष ब्रह्मज्ञान के सिवा दूसरी बात ही नहीं कहते और लोभवश कौड़ी के लिए विप्र और गुरु की हत्या करते हैं।)
*पूज्यपाद श्रीगोस्वामीजी श्रीतुलसीदासजी महाराज ने जो कलियुग का वर्णन लिखा है उसे हम आज देख सकते हैं। आज समाज में 'ब्रह्मज्ञानी' बहुतायत में पाये जा रहे हैं, कोई निरंकारी है, कोई महात्मा है, कोई ब्रह्म ही है- सब 'ज्ञान में चल रहे हैं, ज्ञान की बंसी बजा रहे हैं'। हर किसी को सदा 'ज्ञान' बाट रहे हैं।*
अब देखिये, धर्म की क्रिया में तो परिश्रम है और विधिनिषेध का विचार करना पड़ता है। इसलिए कर्म और उपासना की बात तो बड़ी कठिन है। पर चूँकि अपने आप को धार्मिक भी दिखाना है और धर्म पर तो चलना नहीं है, इसलिए 'ज्ञानी' ही बन जाते हैं- ' *वाक्योच्चार्य समुत्साहात् तत्कर्मकर्तुमक्षमाः।* *कलौ वेदान्तिनो भान्ति फाल्गुने बालका इव।।'* सबसे सरल है कि श्वेत वस्त्र धारण कर लो और ब्रह्मज्ञान कहो। केवल बात ही तो करनी है, भ्रम ही फैलाना है।
आचार आदि का ध्यान रखना नहीं है क्योंकि 'ब्रह्मज्ञानी' के लिये कौन सी रुकावट? बस भक्ति-उपासना आदि पर अनेक कुतर्क करके लोगों को बहकाना है। ऐसे लोग ऊपर से तो महान् ज्ञानी बनते हैं पर भीतर से बड़े ही लोभी और क्रूर होते हैं। जिसके पास धन है उसी के पीछे भागा करते हैं। ये अपने छोटे से लाभ के लिए महान् पाप करने से भी नहीं चूकते हैं, दो पैसे के लाभ के लिए गुरु को ही मार डालेंगे।
श्रीमद्भागवत में भी आया है कि *'कलौ काकिणिकेऽप्यर्थे विगृह्य त्यक्तसौहृदाः। त्यक्ष्यन्ति च प्रियान्प्राणान्हनिष्यन्ति स्वकानपि।।'* (१२|३|४१) अर्थात् कलियुग में बीस संख्यामात्र कौड़ियों के लिए विरोध करके लोग प्रेमरहित बन माता-पिता, भाई, गुरु आदि स्वजनों को मार डालेंगे और अपने प्रिय प्राण भी खो देंगे।
और यह ब्रह्म ज्ञान प्राप्त भी कैसे हो जब तक सद्गुरु ना मिले तब तक ब्रह्म ज्ञान कैसे मिल सकता है शास्त्र, ग्रन्थ, उपनिषदों मैं वर्णन है सिर्फ और सिर्फ गुरु ही हमें मनुष्य से ब्रम्हज्ञानी बना सकते हैं जब चारों वेदों की रचना हुई तो उन चारों वेदों को समझने के लिए उपनिषद बनाए गए 108 उपनिषद की रचना की गई ऋषि ने 108 उपनिषद में भी अपनी पूरी बात नहीं कर पाए उपनिषदों के कारण ही 108 मनके की माला बनी इसी लिए 108 की संख्या शुभ मानी गयी है और सभी उपनिषद में गुरु उपनिषद सर्वश्रेष्ठ माना गया क्योंकि वशिष्ठ ने यह कहा है की:--
*उपनिषदो वै गुरुर्वै सतॉम्यो*
अगर सब कुछ प्राप्त करना है तो गुरु उपनिषद के अलावा कोई ग्रंथ प्रमाणिक नहीं है विश्वामित्र ने इसी प्रकार की बात कही है अत्रि शंकराचार्य आदि ने कहा मैंने अपने जीवन में समस्त ग्रंथों को न छोड़ा है अनुभव किया है और मैं दावे के साथ ही यह कह सकता हूं कि गुरु उपनिषद से बड़ा कोई ग्रंथ नहीं है चाहे ऋग्वेद हो चाहे यजुर्वेद हो चाहे सामवेद हो चाहे अथर्ववेद हो इसलिए नहीं है वेदों को समझने के लिए गुरु की ही आवश्यकता होती है वही समझा सकता है कि वेद क्या है वही समझा सकता है उपनिषद क्या है जीवन क्या है पूर्णता क्या है और मैंने जो इस लोक दिया है वह गुरु उपनिषद का श्लोक है शंकराचार्य जी ने अपने शंकर भाष्य ग्रंथ जोकि उनका सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है जिसका अनुवाद कई देशों की भाषाओं में हो चुका है अमेरिका जर्मन आदि ने भी उसकी तथ्यों को अद्वितीय माना है और वही भाव शंकराचार्य जी ने अपने इस लोक में कहे हैं कि
*सदावै परेशं*
*गुरुर्वै पड़े पूर्ण मदैव नित्यं*
*अचित्यं रूपं सहितं सदैव:*
*आत्मानुभूति परंम परसं परैव*
अर्थात:---
इस श्लोक का अर्थ एक ही है पर वह श्लोक लिखा गया आज से 3000 साल पहले इसलिए 37000 साल तक यह विचार हमारे शास्त्रों में मंथन करता रहा यही जीवन का सत्य है जीवन का आधार है यही जीवन की पूर्णता है ऐसा इस श्लोक में क्या है? क्यों इस श्लोक को इतनी महत्ता दी गई है? इसमें यह बताया गया है कि व्यक्ति अपने आप में पूर्ण है ही नहीं पूर्ण तो प्रभु पैदा करता है जब एक गर्भ में बालक होता है तो वह पूर्ण होता है इसलिए पूर्ण होता है कि बहुत अच्छा अनुभव करता है उस गर्भ में इस श्लोक के भाष्य की बात कर रहा हूं मैं श्री महंत हर्षित कृष्ण आचार्य मेरा मानना है इसका सरलार्थ किया गया उस सरलार्थ की भी सरलार्थ किए गए तब लोगों को कुछ समझ में आया इसका अर्थ बाद में करूंगा अभी भाष्य करता हूं जब बालक गर्भ में होता है तो उसे कैसी सुख सुविधा होती है वह कैसा अनुभव करता है जैसे कोई अमीर आदमी अपने ड्राइंग रूम में बैठा हुआ है इसी लगा है वातानुकूलित कमरा है सोफा इत्यादि पड़े हैं किसी प्रकार की कोई चिंता नहीं है हर सुख सुविधा का ध्यान रखा गया है ठीक वैसी ही सुविधाएं उस गर्भ के बालक को अनुभव होती हैं और जैसे ही वो इस विश्व में पृथ्वी पर जन्म लेता है वह मनुष्य हो जाता है जब तक गर्भ में रहता है तब तक ब्रह्म का साक्षात्कार करता रहता है इसलिए उसको ब्रह्म भी कहा गया है जन्म लेते ही अनेकों मायावी बंधनों में उसको बांध दिया जाता है किसी ने कहा मैं तुम्हारा चाचा हूं यह पिता है यह मां है यह दादी हैं यह बाबा हैं इत्यादि इत्यादि अनेकों बंधन तत्काल तैयार हो जाते जन्म से पहले वह ब्रह्म है जन्म से पहले निर्विकल्प है जन्म से पहले उसको किसी प्रकार का मोह नहीं है मोह इसलिए नहीं गर्भ में परमपिता परमात्मा उनको जो अनहद नाद श्रवण करवाते हैं सारी सुख सुविधा का ध्यान रखते हैं वह सब माया में फंसते ही छूट चुका है उसे छोड़कर जन्म लेना पड़ता है इसलिए गर्व के बालक को ब्रह्म कहा गया है उस वातावरण से इस वातावरण में आता है उन्मुक्त भाव से उस बंधन के भाव में आता है तो वह बहुत व्यथित होता है रोता है दुखी होता है चिल्लाने लग जाता है और फिर वह दास गुलाम सा बन जाता है जैसे एक जंगल के शेर को पकड़ कर लाए और पिजड़े में डालें पहले तो वह सीखता है दहाड़ता है सीखते तोड़ता है उछलता कूदता है परंतु अंत में वह मनुष्य का दास बन जाता है फिर इन बंधनों को कैसे तोड़े इन बंधनों से कैसे मुक्त हो मनुष्यता को छोड़कर ब्रह्म तत्व कैसे धारण करें कैसे उस ब्रह्म को पहचाने क्योंकि जितने भी बंधन वाले हैं वह तो केवल अपने निहित स्वार्थ में आपको हंसाते रहते हैं मैं आपको ऐसा उपदेश नहीं देता कि आज सब बंधुओं को छोड़ दें मैं यह भी आदेश नहीं दे रहा कि सब कुछ छोड़ छाड़ कर भगवान का भजन करो उस से ही सब कुछ हो जाएगा जो कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता अगर पूर्णता प्राप्त करनी है तब तो गुरु की शरण में जाना अनिवार्य है जीवन क्या है जीवन का सार क्या है जीवन का आनंद क्या है अगर तुम यह सोच रहे हो कि तुम जीवन का आनंद प्राप्त कर रहे हो तो यह तुम्हारी मृगतृष्णा है आपने समझौता किया है एडजस्ट होने की कोशिश की है कि हम सुखी हैं मगर सुखी आप इसलिए हैं कि उस सुख को आपने देखा नहीं और उस सुख को देखने के लिए आपको उस सुखालय तक जाना ही पड़ेगा जैसे किसी ने कहा कि भाई इमरती बहुत अच्छी बनती है खाने में बहुत अच्छी होती बहुत स्वादिष्ट होती है अब आपने कभी इमरती नहीं खाई आपने देखी नहीं आप उसके स्वाद को कैसे जान सकते हैं आपको तो वहां जाना पड़ेगा जहां वह इमरती प्राप्त हो अब उसको प्राप्त करने के लिए आप उस व्यक्ति से मिलना पड़ेगा जिसके पास इमरती मौजूद है तभी तो वह आपको देगा इसके लिए आपको परिश्रम करना है वहां तक जाना है और उसका शुल्क भी देना होगा और जब उसको आप खाएंगे उसका स्वाद चख लेंगे तब जानेंगे इसमें क्या स्वाद है इसीलिए आपको गुरु के पास जाकर माया रूपी बंधनों का शुल्क प्रदान करके गुरुदेव की चरण शरण में अनुराग करते हुए उनसे उस ब्रह्म तत्व को प्राप्त करना है
क्रमश:-----
*श्रीमहंत*
*हर्षित कृष्णाचार्य*
*प्रवक्ता*
*संगीतमय श्रीमद्भागवत, श्रीराम कथा*
*ज्योतिष फलादेश*
*श्री जगदीश कृष्ण शरणागति आश्रम लखीमपुर- खीरी*
*मो0:-9648769089*