*जय श्रीमन्नारायण*
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*‼️आपकी जिज्ञासाएं?? हमारे समाधान‼️*
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*भाग ३ :-*
*गतांक से आगे:--------*
शिष्य का गुरु के प्रति एक कर्तव्य है और इसी प्रकार गुरु का भी शिष्य के प्रति एक कर्तव्य है शिष्य का मतलब है अनुशासन और पूर्ण समर्पण इसी प्रकार गुरु का भी तात्पर्य है गरिमा और शिष्य को आत्मसात करने की क्षमता दोनों के ही शब्दों के अर्थ स्पष्ट हैं और यही दोनों के कर्तव्य की ओर दिशा निर्देश करते हैं शिष्य गुरु को समर्पित नहीं होगा अनुशासन में नहीं रहेगा तो उसका कल्याण हो ना उसे पूर्णता प्राप्त होना असंभव है जैसे एक कुम्हार मिट्टी खोदकर के लाता है भिगोता है उसको मिलाता है उसके बाद उसको ऐसा तैयार करता है ना वह अधिक कठोर हो और ना ही अधिक मुलायम हो कठोर होगी तब भी पात्र नहीं बन सकता मुलायम होगी तब भी उसका कुछ नहीं बन सकता गुरु ठीक उसी प्रकार से शिष्य का चुनाव करके उसको लाकर अनुशासन में रखते हुए उस पात्रता के लिए तैयार करता है कठोर नियमों का पालन करवाता है जिससे वह पूर्णता की ओर अग्रसर हो कर कर्म निष्ठ भक्तियोग व मोक्ष का अधिकारी बन सके और अपने साथ-साथ अपने कुल वंश इष्ट मित्र समस्त प्रिय जन का कल्याण कर सके और अपने माता पिता का नाम उज्जवल करें गुरु हर प्रकार की कसौटी पर रखकर अपने शिष्य को चमकता हुआ कुंदन बनाना चाहता है यह गुरु का कर्तव्य है यह गुरु का धर्म है शिष्य को चाहिए वह भी अनुशासन में रहते हुए अपने गुरु इष्ट देव माता पिता इष्ट मित्र एवं समाज का आदर सम्मान उनके प्रति अच्छी भावना रखते हुए अपना कर्म करता रहे संसार में सबसे अच्छा गृहस्थ धर्म बताया गया है गृहस्थ आश्रम से बढ़कर के दूसरा कोई आश्रम नहीं है इस आश्रम में प्रवेश करने पर आपको कैसे जीवन यापन करना है किस प्रकार से अपने कर्तव्य को पूर्ण करना है और परम पिता के चरणो में समर्पित होना है यह सभी बातें यह सभी तैयारी गुरु पहले से करके रखते हैं पहले ही शिष्य को इतना तपा देते हैं इस तरीके से ढाल देते हैं उसे आने वाले जीवन में किसी भी प्रकार की परिस्थितियों में उलझन ना हो हर परिस्थिति से निकलने का हर परिस्थिति से लड़ने का पूर्ण ज्ञान और क्षमता हो यह सब तभी संभव है जब हम गुरु की शरण में रहकर और उनके प्रति समर्पित होकर के अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए उनके द्वारा दिए गए आदेश निर्देश और सभी प्रकार के उपदेशों को सम्मान पूर्वक ह्रदय में धारण करें अपने कर्तव्य का पालन करें और जब ऐसा होता है तब हम अपने माता पिता के पुत्र नहीं अपितु उनके रत्न बनकर के समाज में स्थापित होते हैं हमारे माता पिता को हमारे प्रिय जनों को हमारे ऊपर गर्व होता है और यह पूरा श्रेया सदगुरुदेव को ही जाता है मैं श्री महंत हर्षित कृष्ण आचार्य जहां तक मेरा मानना है तो इसके अलावा और कोई दूसरा उपाय ही नहीं है जो हमें इस माया से लड़ने की ताकत दे सके हमें तैयार कर सके कि हमें गृहस्थ आश्रम में रहकर अपने धर्म और कर्तव्य का पालन किस प्रकार से करना है एक दृष्टांत याद आ रहा है भगवान कपिल देव का जिसमें एक ब्राह्मणी ने उनको अपने पांच रत्न दिखाए थे ध्यान दे वह पंचरत्न कैसे हैं और कौन है
. *🙏 "पंच रत्न"🙏*
महर्षि कपिल प्रतिदिन पैदल अपने आश्रम से गंगा स्नान के लिए जाया करते थे। मार्ग में एक छोटा सा गाँव पड़ता था। जहाँ पर कई किसान परिवार रहा करते थे। जिस मार्ग से महर्षि गंगा स्नान के लिए जाया करते थे, उसी मार्ग में एक विधवा ब्राह्मणी की कुटिया भी पड़ती थी। महर्षि जब भी उस मार्ग से गुजरते, ब्राह्मणी या तो उन्हें चरखा कातते मिलती या फिर धान कूटते।
एक दिन विचलित होकर महर्षि ने ब्राह्मणी से इसका कारण पूछ ही लिया। पूछने पर पता चला की ब्राह्मणी के घर में उसके पति के अलावा आजीविका चलने वाला कोई न था। अब पति की मृत्यु के बाद पूरे परिवार के भरण-पोषण की जिम्मेदारी उसी पर आ गई थी।
कपिल मुनि को ब्राह्मणी की इस अवस्था पर दया आ गई और उन्होंने ब्राह्मणी के पास जाकर कहा, “भद्रे ! मैं पास ही के आश्रम का कुलपति कपिल हूँ। मेरे कई शिष्य राज-परिवारों से हैं। अगर तुम चाहो तो में तुम्हारी आजीविका की स्थाई व्यवस्था करवा सकता हूँ, मुझसे तुम्हारी यह असहाय अवस्था देखी नहीं जाती।
ब्राह्मणी ने हाथ जोड़कर महर्षि का आभार व्यक्त किया और कहा, “मुनिवर, आपकी इस दयालुता के लिए में आपकी आभारी हूँ, लेकिन आपने मुझे पहचानने में थोड़ी भूल की है। ना तो में असहाय हूँ और ना ही निर्धन। आपके शायद देखा नहीं, मेरे पास पांच ऐसे रत्न हैं जिनसे अगर में चाहूँ तो खुद राजा जैसा जीवन यापन कर सकती हूँ। लेकिन मैंने अभी तक उसकी आवश्यकता अनुभव नहीं किया इसलिए वह पांच रत्न मेरे पास सुरक्षिक रखे हैं।
कपिल मुनि विधवा ब्राह्मणी की बात सुनकर आश्चर्यचकित हुए और उन्होंने कहा, “भद्रे ! अगर आप अनुचित न समझे तो आपके वे पांच बहुमूल्य रत्न मुझे भी दिखाएँ। देखूँ तो आपके पास कैसे बहुमूल्य रत्न हैं ?
ब्राह्मणी ने आसन बिछा दिया और कहा, “मुनिवर आप थोड़ी देर बैठें, मैं अभी आपको मेरे रत्न दिखाती हूँ। इतना कहकर ब्राह्मणी फिर से चरखा कातने लगी।
थोड़ी देर में ब्राह्मणी के पांच पुत्र विद्यालय से लौटकर आए। उन्होंने आकर महर्षि और माँ के पैर छुए और कहा, *“माँ ! हमने आज भी किसी से झूठ नहीं बोला, किसी को कटु वचन नहीं कहा, गुरुदेव ने जो सिखाया और बताया उसे परिश्रम पूर्वक पूरा किया है।*
महर्षि कपिल को और कुछ कहने की आवश्यकता नहीं पड़ी। उन्होंने ब्राह्मणी को प्रणाम कर कहा, *“भद्रे ! वाकई में तुम्हारे पास अति बहुमूल्य रत्न है, ऐसे अनुशासित बच्चे जिस घर में हों, जिस देश में, हो उसे चिंता करने की आवश्यकता ही नहीं है* ----------:::×:::----------
"जय जय श्री राधे"
*शेष अगले अंक में:-----*
*श्रीमहन्त*
*हर्षित कृष्णाचार्य*
*प्रवक्ता*
*श्रीमद्भागवत कथा, संगीतमय श्रीराम कथा,एवं ज्योतिष फलादेश*
*श्री जगदीश कृष्ण शरणागति आश्रम लखीमपुर- खीरी*
*मो0:-9648769089*