*जय श्रीमन्नारायण*
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*गुरु ही सफलता का स्रोत*
*भाग:-----३*
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*गतांक से आगे*----
*क्या गुरु का भी ऋण होता है*--------
तो उत्तर आएगा हां शिष्य अपने गुरु का ऋण कभी उतार ही नहीं सकता अपने माता-पिता का ऋण उतार सकता है अपने स्वजनों का ऋण उतार सकता है क्योंकि उनसे उसके देश भगत संबंध होते हैं लेकिन जिन से आत्मा का संबंध होता है यही तो सद्गुरु है और जो जन्म जन्म से उनके गुरु हैं उनका ऋण भला कैसे उतर सकता है गुरुद्वारा प्राप्त ज्ञान दीक्षा शक्तिपात चेतना गुरु की कृपा ही है लेकिन *शिष्य केवल निट्ठल्ला होकर बैठा ही रहे अपने हृदय के भावों को गुरु के सामने प्रकट न करें *अपितु उलट कर गुरु में* *ही दोष छिद्रान्वेषण करें*
*और गुरु के ऊपर सन्देह करें फिर उसका पतन* *निश्चित है इसका मतलब आज तक वह अपने गुरु को समझ ही नहीं पाया अंततः गुरुद्वारा प्रदत्त* *सारी विद्या नष्ट हो जाती है दूसरे अर्थों में वह गुरु के पास वापस चली जाती है।*
फिर तो वह शिष्य कहलाने के लायक भी नहीं गुरु शिष्य कोई संचारी भाव देता है संचारी भावों को प्रकट करना उसका कर्तव्य है और वह भाव प्रकट करने का दिवस है गुरु पूर्णिमा जिस दिन शिष्य पूर्ण रूप से गुरु के श्री चरणों में समर्पित हो जाना चाहिए अगर इस समय भी शिष्य अपने कर्तव्य को नहीं समझ सकता तो वह बहुत बड़ा अभागा है ।
शिष्य के लिए कहा गया है----
*क्षुरस्य धारा निहिता गुहायाम*
*अर्थात:-- शिष्यता का अर्थ तलवार की धार पर चलना है*
समर्पण सिर्फ हाथ जोड़ने से नहीं होता आरती करने से व पूजन करने से भी नहीं होता समर्पण का मतलब है गुरु जो भी करता है जो भी कहता है उसको आज्ञा समझते हुए बिना संदेह बिना ना नुकुर के गुरु की आज्ञा का पालन करना जो वह करें जो आदेश दें वही आशीर्वाद है यह समझने वाला शिष्य ही वास्तव में सिर्फ है।
*कामं क्रोधम् तथा लोभम् मानं प्रहसनम स्तुतिम।*
*चापलांनी न जिभ्यानी कार्याणि परिदेवनम।*
अर्थात:-गुरु के सामने कभी झूठ नहीं बोले तथा सीमित वार्तालाप करें काम क्रोध लोभ मान हंसी मजाक मिथ्या स्तुति और लज्जा पूर्ण चंचलता तथा गुरु को मानसिक वेदना देने वाला कोई भी कार्य न करें *असत्यम न वादेदग्रे न बहु प्रलपेदपि।* अगर शिष्य ऐसा नहीं करता है स्वार्थ के वशीभूत होकर गुरु को मोहरा बनाता है कार्य करता है वादे करता है और फिर गुरु पर ही दोषारोपण करता है तो परिवार धर्म सम्मान के साथ साथ धन और वह स्वयं नष्ट हो जाता है जबकि कोई भी गुरु ऐसा नहीं चाहता वह सदैव शिष्य का पुत्र के तरह पालन पोषण करता है और सदैव उसका हितेषी होता है वह चाहे प्रत्यक्ष हो अथवा अप्रत्यक्ष।।
जो अपने आप को शिष्य स्वीकार करता है उसका एक ही कर्तव्य है गुरु से मिलना जो गुरु से नहीं मिल सकता वह शिष्य संसार में परिवार स्वजन मित्र मिथ्या आडंबर रूपी राह के पत्थरों के कारण रुक जाता है हृदय में प्रवाह हो , देह में प्राण हो, शरीर मे श्वास हो तो संसार की कोई भी शक्ति शिष्य को गुरु से मिलने से नहीं रोक सकती
अस्तु
*क्रमशः:-----*
*श्रीमहन्त*
*हर्षित कृष्णाचार्य*
*श्री जगदीश कृष्ण शरणागति आश्रम*
*लखीमपुर-खीरी*
*मो0:-- 9648769089*