*जय श्रीमन्नारायण*
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*गुरु ही सफलता का स्रोत*
*भाग:-६*
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*गतांक से आगे:------*
संसार में दुख हैं हर दुख का कारण है और हर दुख का निवारण भी है गुरु की कृपा प्राप्त करने का सरल उपाय ही दीक्षा है और शिष्य का धर्म यही है की पुनः पुनः गुरु चरणों में उपस्थित होकर दीक्षा द्वारा अपने अभीष्ट की सिद्धि करें सद्गुरु करुणा करके भले ही शिष्य को कुछ प्रदान कर दें यह उनकी कृपालु ता है परंतु शिष्य का धर्म तो वही है कि वह प्रार्थना कर गुरुदेव से दीक्षा प्राप्त करें भगवान शिव ने पार्वती जी को शिष्य धर्म के बारे में दीक्षा के महत्व को इस प्रकार स्पष्ट किया है:-
*दीक्षाविधिं प्रवक्ष्यामि साधकानां हितेच्या।*
*विधाय विधिवद दीक्षाम पशुत्वात स विमुच्यते।।*
अर्थात:- भगवान माहेश्वर माता पार्वती से कहते हैं हे देवी शास्त्रोक्त विधि द्वारा दीक्षा ग्रहण के बाद साधक में पशुत्व भाव नष्ट होकर विशिष्ट भाव में प्रवेश करता है उसका ह्रदय निर्मल हो जाता है वह पाप रहित हो जाता है
*दीक्षा विवर्धते विद्याम*
*दीक्षा सौभाग्य दायिनी*
अर्थात दीक्षा से ही विद्या की वृद्धि होती है और दीक्षा सौभाग्य प्रदान करती है जिसने जीवन पर्यंत दीक्षा ग्रहण नहीं की गुरु की शरण में नहीं पहुंचा वह अपने दुर्भाग्य को नहीं छोड़ पाता अपने साथ-साथ अपने समस्त पित्र समुदाय को भी नर्क गामी बना लेता है भगवान भोलेनाथ माता पार्वती से कहा हे देवी जो साधक बाल अवस्था युवा अथवा प्रौढ़ावस्था अथवा जरा अवस्था में भी गुरु की शरण ग्रहण नहीं करता वह अपने साथ साथ अपने समस्त कर्मों का अपने भाग्य का अपने साथियों का माता पिता भ्राता मित्र पुत्र के समेत अपने गोत्र के पूर्वजों को भी नर्क गामी बनाता है
*बाल्ये वा यौवने वापि वार्धके$पि सुरेश्वरि।*
*अन्यथा निरयी पापी पितृन् स्वान्निरयं नयेत्।।*
(नारद पंचरात्र)
जिसमें समुद्र में छलांग लगाने की हिम्मत है वही मुक्ति प्राप्त कर सकता है और मैं श्री महंत हर्षित कृष्ण आचार्य जहां तक मैं समझता हूं अगर व्यक्ति समुद्र के किनारे बैठा रहता है छलांग लगाने की सोचता तो रहता है लेकिन छलांग लगा नहीं पाता बहुत मन बना करके किसी प्रकार का मन को लालच देकर अगर जल में उतरता भी है तो उसकी एक दो लहर की थपेड़ों को भी नहीं झेल पाता वापस आ जाता है बार-बार गुरु उकसावे भी तब भी एक कदम चले और बैठ जाएं बार-बार याद आए कि मेरे पीछे समाज है पुत्र है बंदों हैं बांधव हैं यह क्या सोचेंगे क्या होगा कैसे होगा ऐसा तो नहीं गुरुदेव मुझे समुद्र में डूबा देना चाहते हैं मेरा अहित चाहते हैं फिर तो वाह कुछ कर ही नहीं सकता क्योंकि जहां सुख हो वहां हमेशा सुख नहीं रहता ऐसा संभव ही नहीं किस सुख आया है तो अब जाए हीना जहां प्रातः होगी तो मध्यान्ह भी होगा फिर शाम भी होगी रात होगी और फिर प्रातः होगा यही प्रकृति का नियम है सुख के बाद दुख आएगा ही परंतु आनंद के बाद आनंद ही आता है आनंद और सुख में यह मूलभूत अंतर है आनंद के बाद मृत्यु नहीं आ सकती चिंता नहीं व्याप्त हो सकती अगर तुम जीवन में आनंद प्राप्त करना चाहते हो उस परम शक्ति के परम तत्व के गोद में खेलना चाहते हो तो समर्पित होने की क्रिया सीखनी पड़ेगी अपने प्राणों को गुरु के प्राणों में समावेश करने की क्रिया सीखनी ही होगी अपने आपको भूलना होगा तुम्हारे पास जो भी चिंताएं हैं दुख हैं परेशानियां हैं बाधाएं हैं वह सभी तुम्हें मुझ को समर्पित कर देने हैं जब भी गुरु के पास जाना है तो बिल्कुल खाली पात्र की तरह जिससे गुरु उसमें पूर्णत्व डाल सके कोरे कागज की तरह जिस पर गुरु कुछ लिख सके और वह लिखना ही जीवन की पूर्णता है गुरु ने जिस समय आपके हृदय पर आनंद लिख दिया फिर तो आनंद के बाद आनंद ही आएगा क्योंकि त्रैलोक्य में हर वस्तु का हर शब्द का विलोम है परंतु आनंद का कोई विलोम नहीं है इसलिए आनंद के बाद तो आनंद को ही आना है और यह सब गुरु कृपा से ही संभव है गुरुदेव ब्रम्हत्व
लिख सकें जीवन की सर्वोच्चता क्या है श्रेष्ठता क्या है यह बता सके गुरु वह शक्ति है जो एक छोटे से गांव को विराट रूप बनाने की क्रिया करता है और यह क्रिया केवल गुरु जानता है गुरु ही कर सकता है मनुष्य से देवता बनाने की क्रिया केवल गुरु के पास ही संभव है मूलाधार से सहस्रार तक पहुंचाने की क्रिया और इसी के लिए जीवन का आधार केवल और केवल सद्गुरु ही होता है आजकल गुरु तो बहुत मिल जाएंगे मार्केट में निकलो पान के दुकानदार को अक्सर पान खाने वाले बोल देते हैं और गुरु क्या हो रहा है पान खिलाओ पीले कपड़े पहने अपनी दुकान सजाए अपने बनाए गए उत्पाद बेचते हुए अनेकों गुरु मिल जाएंगे परंतु सद्गुरु जो संचेतना युक्त है वह अपने आप को छुपा कर रखता है वह भगवा कपड़े ऐसो आराम की जिंदगी बड़ी-बड़ी गाड़ियों में घूमना अथवा अपने आप को सिद्ध घोषित करना कहना आओ मेरे पास आ जाओ मैं ब्रह्म का दर्शन करा दूंगा ऐसा कुछ नहीं करता वह तो केवल आपको सदा मार्ग बताता है और जब आप शिष्य बनने के लिए जाते हैं तो वह आपको आज्ञा देते हैं कुछ ऐसे कृत्य करते हैं जिनके पीछे अनेकों रहस्य छिपे होते हैं क्योंकि गुरु भी सोचते हैं कि हम जिसको यह साधना यह दीक्षा यह तत्वज्ञान प्रदान कर रहे हैं क्या वास्तव में वह पात्र है और पात्र है अभी तो कैसा क्योंकि पात्र भी दो प्रकार के होते हैं सुपात्र और अपात्र गुरु की वाणी में ओज होता है एक सत्यता होती है एक दृढ़ता होती है ठोकर भी मार सकता है और प्यार भी कर सकता है वह तुम्हें चेतना युक्त बना सकता है यदि तुम तैयार हो साधना पथ कि यह पगडंडियों से चाहे जितनी ऊबड़ खाबड़
हो चाहे कटीली हो चाहे जितने टेढ़ी-मेढ़ी रास्ते हो पत्थर बिखरे हो परंतु इसमें तनिक भी संदेह नहीं है कि इन रास्तों का जो समापन है वह अद्भुत है पूर्णानंद युक्त है पूर्णता देने वाला है और वहां पहुंच कर पूरी यात्रा की थकान अपने आप में समाप्त हो जाती है और पूर्णता तब संभव होती है जब शिष्य गुरु के चरणों में सिर रखकर आंसुओं से उनके चरणों को धोए अपने को पूर्ण विसर्जित कर दें उसका ह्रदय गदगद हो जाए गला भर जाए और उन्हें भी एक गले से जो कुछ शब्द निकले तो गुरुदेव शब्द ही निकले समर्पण हाथ जोड़ने से नहीं होता आरती उतारने से होता है न पूजन करने से होता है समर्पण एक आंतरिक अभाव है
*क्रमशः:-----*
*श्रीमहन्त*
*हर्षित कृष्णाचार्य*
*श्री जगदीश कृष्ण शरणागति आश्रम लखीमपुर- खीरी*
*मो0:- 9648769089*