*जय श्रीमन्नारायण*
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*‼️आपकी जिज्ञासाएँ?? हमारे समाधान‼️*
*भाग ४:-*
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*गतांक से आगे:---------*
*प्रश्न:- क्या गुरु ईष्ट हो सकता है?*
*उत्तर:-* इष्ट का तात्पर्य एक ऐसी सत्ता से है जो उसके जीवन में सर्वोच्च है और जिस में लीन हो जाना वह अपना गौरव समझता है यदि शिष्य की भावना है तो वह गुरु को भी ईस्ट मान सकता है मेरी राय में यह स्थिति शिष्य की श्रेष्ठ एवं परम स्थिति है ऐसी स्थिति होने पर शिष्य तीर की तरह अपने लक्ष्य की ओर दौड़ सकता है गुरु को समर्पित होकर उनके चरण कमलों की वंदना करते हुए जिस प्रकार से हम किसी देवता अथवा देवी को अपना इष्ट मानते हैं इष्ट का तात्पर्य है विशेष प्रमुख जिसका हमारे जीवन में हमारी दिनचर्या में हमारी कार्यशैली में हमारे हृदय में हमारी आत्मा में हमारी प्रति स्वास में निरंतर वास रहता है ध्यान रहता है जिसकी हम प्रतिपल छवि देखना चाहते हैं निरंतर ध्यान करना चाहते हैं और उसी के सानिध्य में रहकर अपने संपूर्ण जीवन की सारी अवधि बिता देना चाहते हैं वही हमारा इष्ट है उसके अलावा हमारा मन कहीं अन्यत्र नहीं लगता जब यह स्थिति उत्पन्न हो जाती है वह चाहे देवता हो देवी हो कार्य हो अथवा हमारा कोई भी परिजन हो वह फिर हमसे दूर नहीं रह सकता वह एक चुंबकीय शक्ति के द्वारा हमारी तरफ खिंचा चला आता है और वह शक्ति कहीं अन्यत्र नहीं अभी तो हमारे अपने अंदर होती है क्योंकि हमारी लगन हमारी मानसिकता हमारा जीवन हमारे सारे शौक अपने इष्ट के प्रति समर्पित हो जाते हैं उसके सामने कोई भी अन्य वस्तु व्यक्ति देवता कुछ भी अच्छा नहीं लगता यही तो दीवानगी की हद है जब हम बिल्कुल अपने इष्ट के लिए दीवाने हो जाते हैं तो वह फिर हमसे दूर नहीं हो पाता अपितु हमारा ही हो जाता है अब गुरु को शास्त्रों में त्रिलोकी के समस्त देवताओं से बढ़कर के बताया गया है यहां तक कि स्वयं त्रिदेव भी गुरु के सामने नतमस्तक होते हैं वह भी बिना गुरु के अधूरे हैं अखंड ब्रम्हांड नायक जगत नियंता जगत आधार तड़ित विनिंदक पीतांबर धारी भगवान श्री कृष्ण चंद्र महाराज ने जब इस धरा धाम पर अवतार लिया उन्होंने भी सर्वप्रथम अपने कुलगुरू प्रातः स्मरणीय श्री गर्ग आचार्य जी महाराज से विद्या अध्ययन किया तदोपरांत जब मथुरा आ गए कंस को मारने के बाद माता पिता और नाना जी को बंधन से मुक्त करके नानाजी का राज्याभिषेक करके द्वारिका का निर्माण किया वहां पहुंचने के उपरांत माता पिता की आज्ञा से ब्रह्म कुल गौरव श्री सांदीपनि मुनि जी के यहां जाकर यज्ञोपवीत संस्कार से युक्त होकर समस्त विद्याओं का अध्ययन किया गुरु दीक्षा प्राप्त की गुरुकुल के कठोर नियमों का अनुशासन का पालन किया और यह सब तब संभव हुआ जब उन्होंने अपने गुरु को इष्ट स्वरूप में ग्रहण किया गोस्वामी जी ने लिखा है *गुरू बिनु भव निधि तरई न कोई।*
*जो बिरंचि संकर सम होई।।*
फिर अन्य किसी को क्या कहा जाए आज बात विशेष रूप से इष्ट की है एक उदाहरण और देना चाहूंगा जिस समय परम आदरणीय श्री विवेकानंद जी गुरुदेव परमहंस जी की शरण में पहुंचे ना जाने कितने शिष्य थे परमहंस जी के अभी तो सारी विधाएं सारी विद्या समस्त शक्ति परमहंस जी ने विवेकानंद जी को ही थी मन में प्रश्न आता है *क्यों?* इतने शिष्य होते हुए भी उन्होंने मात्र विवेकानंद जी को ही क्यों चुना क्या इसके अलावा कोई अन्य शिष्य नहीं था या अन्य किसी ने उनसे दीक्षा नहीं ली गुरुकुल के नियमों का पालन नहीं किया नहीं सभी ने दीक्षा ली सभी ने गुरुकुल के नियमों का पालन किया परंतु सब ने अपने गुरु को समर्पित होकर के समर्पण भाव से इष्ट के रूप में स्वीकार नहीं किया एक घटना है जब परमहंस जी को छोड़ा हुआ परमहंस जी बहुत परेशान थे बड़ा भयंकर दर्द होता था इस असहनीय पीड़ा को देखकर सभी शिष्यों ने कहा गुरुदेव इसकी दवाई ले ली जाए अथवा क्या उपाय हो सकता है परमहंस जी ने कहा मेरा अंत समय आ चुका है जाने का समय है और इसकी कोई दवाई नहीं है विवेकानंद जी बोले गुरुवर कोई तो उपाय होगा गुरुजी ने कहा उपाय तो है परंतु बहुत ही कठिन है विवेकानंद जी ने कहा गुरुदेव चाहे जितना कठिन हो प्राण भी चले जाएं तब भी कोई बात नहीं है लेकिन आपका जीवन अनमोल है आपको अभी रहना होगा उपाय क्या है बताएं गुरुदेव ने कहा उपाय यह है अगर कोई शिष्य इस फोड़े को अपने मुंह से चूस करो सारा दिन खींच ले तो मैं ठीक हो जाऊंगा और विवेकानंद जी ने कहा और क्या गुरुदेव परमहंस जी बोले और उसके प्राण चले जाएंगे अब सभी से एक दूसरे को देख रहे हैं एक दूसरे से कहते हैं तुम खींचो तुम खींचो आगे कोई नहीं बढ़ता विवेकानंद जी आगे आए और बोले गुरुदेव लाओ मैं उस विष का पान करता हूं गुरुजी ने कहा विवेक तुम्हारा जीवित रहना बहुत जरूरी है और मैं क्या मैं तो वृद्ध हो चुका हूं विवेकानंद जी ने कहा गुरुवर अगर मैं मर गया तुम मेरे जैसे हजारों विवेकानंद आप तैयार कर देंगे क्योंकि आप जड़ हैं और हम सब उसकी शाखा है जब जड़ ही नहीं होगी तो शाखाएं कैसे रहेगी जड़ ठीक है तो अगर एक आध शाखा कट भी गई तो अनेकों शाखाएं निकल आएंगे लेकिन यदि जड़ कट गई तो समस्त शाखाएं समाप्त हो जाएंगी इतना कहकर उन्होंने उस फोड़े से उस विष को खींचना प्रारंभ कर दिया जब सारा विष खींच गया तो गुरु जी ने विवेकानंद जी से पूछा विवेक इसका स्वाद कैसा था विवेकानंद जी ने कहा गुरुदेव आज तक मैंने कभी भी इतना स्वादिष्ट आम नहीं खाया है गुरुदेव मुस्कुराए और बोले पगले यह आम ही तो था *क्योंकि यह शिष्य के समर्पण की परीक्षार्थी जिसमें समस्त शिष्यों के सामने विवेकानंद जी उस परीक्षा में उत्तीर्ण हुए* फिर आगे आप लोग स्वयं जानते हैं स्वामी विवेकानंद जी ने भारत ही नहीं अपितु पूरे विश्व में सनातन धर्म का झंडा लहराया सनातन धर्म को पुनः जागृत किया यह है ग्रुप को इष्ट मानने का फल समस्त शक्तियां परमहंस जी ने विवेकानंद जी को दे दी और बोले विवेक आज मैं पुनः पहले की तरीके से खाली हो गया हूं मैंने जो कुछ भी अपने जीवन में कमाया था सब तुम्हें दे रहा हूं इसका सदैव धर्म राष्ट्रधर्म और मानवता की रक्षा में उपयोग करना इन वचनों का विवेकानंद जी ने जीवन पर्यंत पालन किया और अपना अपने गुरु का नाम विश्व पटल पर लिखकर युग युगांतर के लिए अमर कर दिया अगर उन्होंने गुरु को समर्पण न किया होता गुरु को इष्ट न माना ना होता तो क्या यह सब संभव था इसलिए हम गुरु को इष्ट के रूप में स्वीकार कर सकते हैं*
*शेष अगले भाग में----*
*श्रीमहंत*
*हर्षित कृष्णाचार्य* *प्रवक्ता*
*श्रीमद्भागवत कथा' संगीतमय श्रीराम कथा एवं ज्योतिषीय फलादेश*
*श्री जगदीश कृष्ण शरणागति आश्रम लखीमपुर-खीरी*
*मो0:- 9648769089*