*जय श्रीमन्नारायण*
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*श्री वृंदावन धाम की जय*
अगर कोई कंठीधारी कृष्णभक्त या वैष्णव जो उर्धव-पुन्ड्र वैष्णव तिलक लगाकर किसी के घर भोजन करता है, तो उस घर के 20 पीढ़ियों को मैं (परम पुरुषोत्तम भगवान) घोर नरकों से निकाल लेता हूँ।
ऊर्ध्वपूण्ड्रधरो मर्त्यो गृहे यस्यान्नम् अश्नुते ।
तदा विंशत्कुलं तस्य नरकाद् उद्धराम्य् अहं ॥ २०३ ॥
हरी-भक्तिविलास 4.203, ब्रह्माण्ड पुराण)
हे पक्षीराज! (गरुड़) जिसके माथे पर गोपी-चन्दन का तिलक अंकित होता है, उसे कोई गृह-नक्षत्र, यक्ष, भूत-पिशाच, सर्प, यमदूत आदि हानि नहीं पहुंचा सकते। (हरी-भक्ति विलास 4.238, गरुड़ पुराण से उद्धृत)
जिन भक्तों के गले में तुलसी या कमल की कंठी-माला हो, कन्धों पर शंख-चक्र अंकित हों, और तिलक शरीर के बारह स्थानों पर चिन्हित हो, वे समस्त ब्रह्माण्ड को पवित्र करते हैं। (पद्म पुराण)
तिलक हमारे शरीर को एक मंदिर की भाँति अंकित करता है, शुद्ध करता है और बुरे प्रभावों से हमारी रक्षा भी करता है। इस तिलक को हम स्वयं देखें या कोई और देखे तो उसे स्वतः ही श्री कृष्ण का स्मरण हो आता है। गोपी चन्दन तिलक के माहात्म्य का वर्णन विस्तार रूप में गर्ग-संहिता के छठवें स्कंध, पन्द्रहवें अध्याय में किया गया है। उसके अतिरिक्त कई अन्य शास्त्रों में भी इसके माहात्म्य का उल्लेख मिलता है।
तिलक कृष्ण के प्रति हमारे समर्पण का एक बाह्य प्रतीक है। इसका आकार और उपयोग की हुई सामग्री, हर सम्प्रदाय या आत्म-समर्पण की प्रक्रिया पर निर्भर करती है।
हमारे "गौड़ीय संप्रदाय" में तिलक सामन्यतया गोपी-चन्दन से ही किया जाता है। कुछ भक्त वृन्दावन की रज से भी तिलक करते हैं। यह तिलक मूलतः मध्व तिलक के समान ही है। परन्तु इसमें दो अंतर पाये जाते हैं। श्री चैतन्य महाप्रभु ने कलियुग में नाम-संकीर्तन यज्ञ को यज्ञ-कुण्ड में होम से अधिक प्रधानता दी, इस कारण तिलक में भी बीच की काली रेखा नहीं लगायी जाती। दूसरा अंतर है भगवान श्री कृष्ण को समर्पण की प्रक्रिया। गौड़ीय संप्रदाय में सदैव श्रीमती राधारानी की प्रत्यक्ष सेवा से अधिक, एक सेवक भाव में परोक्ष रूप से सेवा को महत्व दिया जाता है। इस दास भाव को इंगित करने के लिए मध्व संप्रदाय जैसा लाल बिंदु न लगाकर भगवान के चरणों में तुलसी आकार बनाकर तुलसी महारानी की भावना को दर्शाया जाता है, ताकि उनकी कृपा प्राप्त कर हम भी श्री श्री राधा-कृष्ण की शुद्ध भक्ति विकसित कर सकें।
किसी भी स्थिति में, तिलक का परम उद्देश्य अपने आप को पवित्र और भगवान के मंदिर के रूप में शरीर को चिन्हित करने के लिए है। शास्त्र विस्तार से यह निर्दिष्ट नहीं करते कि तिलक किस ढंग से किये जाने चाहिए। यह अधिकतर आचार्यों द्वारा शास्त्रों में वर्णित सामान्य प्रक्रियाओं को ध्यान में रखते हुए बनायीं गयी हैं।
पद्म पुराण के उत्तर खंड में भगवान शिव, पार्वती जी से कहते हैं कि वैष्णवों के “U” तिलक के बीच में जो स्थान है उसमे लक्ष्मी एवं नारायण का वास है। इसलिए जो भी शरीर इन तिलकों से सजा होगा उसे श्री विष्णु के मंदिर के समान समझना चाहिए।
पद्म पुराण में वर्णन आता हैं:-
वाम्-पार्श्वे स्थितो ब्रह्मा
दक्षिणे च सदाशिवः
मध्ये विष्णुम् विजनियात
तस्मान् मध्यम न लेपयेत्
तिलक के बायीं ओर ब्रह्मा जी विराजमान हैं, दाहिनी ओर सदाशिव परन्तु सबको यह ज्ञात होना चाहिए कि मध्य में श्री विष्णु का स्थान है। इसलिए मध्य भाग में कुछ लेपना नहीं चाहिए।
बायीं हथेली पर थोड़ा सा जल लेकर उस पर गोपी-चन्दन को रगड़ें। तिलक बनाते समय पद्म पुराण में वर्णित निम्नलिखित मन्त्र का उच्चारण करें:-
ललाटे केशवं ध्यायेन
नारायणम् अथोदरे
वक्ष-स्थले माधवम् तु
गोविन्दम कंठ-कुपके
विष्णुम् च दक्षिणे कुक्षौ
बहौ च मधुसूदनम्
त्रिविक्रमम् कन्धरे तु
वामनम् वाम्-पार्श्वके
श्रीधरम वाम्-बहौ तु
ऋषिकेशम् च कंधरे
पृष्ठे-तु पद्मनाभम च
कत्यम् दमोदरम् न्यसेत्
तत प्रक्षालन-तोयं तु
वसुदेवेति मूर्धनि
माथे पर – ॐ केशवाय नमः
नाभि के ऊपर – ॐ नारायणाय नमः
वक्ष-स्थल – ॐ माधवाय नमः
कंठ – ॐ गोविन्दाय नमः
उदर के दाहिनी ओर – ॐ विष्णवे नमः
दाहिनी भुजा – ॐ मधुसूदनाय नमः
दाहिना कन्धा – ॐ त्रिविक्रमाय नमः
उदर के बायीं ओर – ॐ वामनाय नमः
बायीं भुजा – ॐ श्रीधराय नमः
बायां कन्धा – ॐ ऋषिकेशाय नमः
पीठ का ऊपरी भाग – ॐ पद्मनाभाय नमः
पीठ का निचला भाग – ॐ दामोदराय नमः
अंत में जो भी गोपी-चन्दन बचे उसे ॐ वासुदेवाय नमः का उच्चारण करते हुए शिखा में पोंछ लेना चाहिए।