।।श्रीमते रामानुजाय नमः।।
श्रीरामानुज स्वामी की मेलकोटे की यात्रा
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श्रीरामानुज स्वामी जी के मार्गदर्शन में सभी वैष्णव श्रीरंगम् में आनन्द मंगल से रह रहे थे। तभी एक दुष्ट राजा , जो शैव सम्प्रदाय से सम्बन्ध रखता था, विचार किया कि शिवजी की श्रेष्ठता को स्थापित किया जाना चाहिये। उसने सभी विद्वानों को बुलाया और उन्हें जबरदस्ती शिवजी की श्रेष्ठता को मानने के लिये मजबूर किया। श्रीकूरेश स्वामी जी के शिष्य नालुरान ने राजा से कहा, “अनपढ़ अज्ञानी लोगों के मानने से क्या लाभ होगा? यदि आप सिर्फ श्रीरामानुज स्वामी जी और श्रीकुरेश स्वामी जी से मनवा सकते हों तभी यह सत्य हो पायेगा।”
यह सुनकर राजा ने अपने सैनिकों को श्रीरामानुज स्वामी जी को बुलाने के लिये भेजा। इस समय श्रीरामानुज स्वामी जी स्नान के लिये बाहर गये थे और श्रीकूरेश स्वामी जी ही मठ में थे । वे राजा के भाव को समझ गये और श्रीरामानुज स्वामी जी की तरह काषाय पोशाक धारण करके उनका त्रिदण्ड को लेकर सैनिकों के साथ राजा के दरबार पहुँचे। स्नानादि से निवृत होकर श्रीरामानुज स्वामी जी जब मठ में वापिस आये तो इस विषय में उन्होंने पूरी जानकारी प्राप्त की और घटित होनेवाली विपत्ति को ध्यान में रखकर महापूर्ण स्वामी जी की सलाह पर तुरन्त मठ छोड़ कर जाने को को उद्दत हुए। उन्होंने श्रीकूरेश स्वामी जी के वस्त्र धारण कर अपने शिष्यों के सहित श्रीरंगम् से दूर बाहर निकल आये। जब सैनिकों को इनके श्रीरंगम् से भाग जाने का समाचार मिला तो सैनिकों ने इनका पीछा किया। परन्तु श्रीरामानुज स्वामी जी ने थोड़ी मिट्ठी उठाई और उसे पवित्र करके उसे रास्ते में फैला दिया। सैनिकों को उस रेत पर पाँव रखने पर दर्द हुआ और इससे उन्होंने पीछा करना छोड़ दिया।
श्रीरामानुज स्वामी जी उस समय मेलकोटे (तिरुनारायणपुरम्) की ओर यात्रा किये जिसे उन्होंने सुरक्षित माना। जंगल के रास्ते में वे कुछ शिकारियों से मिले जो नल्लान चक्रवर्ती (श्रीरामानुज स्वामी जी के शिष्य) की आज्ञा से वहाँ थे। उन शिकारियों ने उन सभी का, जो 6 दिनों से नंगे पाँव चलते हुए भूखे प्यासे थे, स्वागत किया। उन्होंने उनके कुशल मंगल के बारे में पूछताछ की और तब श्रीवैष्णवों ने कहा कि एम्पेरुमानार यहीं हैं और उनका दर्शन कराया और तब सभी शिकारियों ने बहुत ही आनन्द का अनुभव किया। शिकारियों ने उन्हें शहद और मोटा अनाज अर्पण किया जिसे एम्पेरुमानार को छोड़ सभी ने स्वीकार किया। यहाँ से शिकारियों ने पास के एक गाँव में सभी को ले गये। यहाँ एक ब्राह्मण परिवार रहता था ।
वहीं ब्राह्मण की पत्नी (श्री चैलाचलाम्बा जी) ने सभी को प्रणाम करके प्रार्थना कि वे सभी पका हुआ प्रसाद को स्वीकार करें। श्रीवैष्णवों ने प्रसाद ग्रहण करने से मनाकर दिया और कहा कि वे हर किसी से प्रसाद ग्रहण नहीं कर सकते। तुरन्त अम्मा जी ने जवाब दिया कि वह स्वयं एम्पेरुमानार की शिष्या हैं और सभी को विस्तार से बताया कि कुछ समय पहिले ही श्रीरामानुज स्वामी जी ने उसे श्रीवैष्णव सम्प्रदाय में दीक्षा दी थी। उसने कहा , “उन दिनों मैं जब श्रीरंगम् में थी राजा और उनके मन्त्रीगण श्रीरामानुज स्वामी जी के पास आकर आशीर्वाद लेते थे। परन्तु श्रीरामानुज स्वामी प्रतिदिन भिक्षा लेने जाते थे।” फिर मैंने स्वामी जी से पूछा, “ जब यहाँ प्रसाद की पूरी व्यवस्था है तो आप भिक्षाटन के लिए क्यों जाते हैं? इतना अन्तर्विरोध क्यों है?” स्वामी जी ने कहा, “जब मैं भिक्षा के लिये जाता हूँ तो उन्हें भगवान् के विषय में ज्ञान देता हूँ।” मैंने स्वामी जी से प्रार्थना की कि मुझे भी ऐसा उपदेश प्रदान करें और तब उन्होंने मुझे श्रीवैष्णव सम्प्रदाय की दीक्षा दी। जब हमें अपने गाँव को वापस आना था तो मैंने स्वामी जी से उनका आशीर्वाद माँगा तब उन्होंने अपनी पवित्र चरणपादुका मुझे दे दी। हम फिर यहाँ आ गये।
यह सभी श्रीवैष्णव सुनकर एम्पेरुमानार (अपनी पहचान बताये बिना) सभी श्रीवैष्णवों को उसके द्वारा बनाये प्रसाद को पाने को कहा। परन्तु एक श्रीवैष्णव को उन्होंने उसके क्रिया कलापों पर नजर रखने को कहा। उसने खाना बनाने के बाद पूजा घर में जाकर कोइलाल्वार (भगवान्) को भोग लगाकर ध्यान में बैठ गई। श्रीवैष्णव ने देखा कि वहाँ भगवान् की तरह कोई मूर्ति है लेकिन वह सामान्य मूर्ति की तरह नहीं दीखती है। उसने श्रीरामानुज स्वामी जी को सारा वृत्तान्त बताया जिसे अभी-अभी देखा था। एम्पेरुमानार ने तब उस ब्राह्मण पत्नी से पूछा , “आप अन्दर क्या कर रही थीं? ”उसने जवाब दिया , “मैंने ध्यान लगाकर अपनी प्रार्थना श्रीरामानुज स्वामी जी द्वारा दी गई चरणपादुका से की और उन्हें भोग लगाया।” एम्पेरुमानार ने उस पादुका को बाहर लाने को कहा और उसने वैसे ही किया। एम्पेरुमानार ने अपनी पादुका पहचान लिया कि यह उनकी ही चरणपादुका है। तब एम्पेरुमानार ने उससे पूछा कि “क्या तुम्हें पता है एम्पेरुमानार यहाँ हैं?” और उसने दीपक के प्रकाश में सभी के चरणारविंदों का निरीक्षण किया। जब उसने एम्पेरुमानार के पवित्र चरणों को देखा तब वह खुशी से अचम्भित हो गयी और कहा, “यह तो एम्पेरुमानार के पवित्र चरणों के समान ही हैं परन्तु क्योंकि आप सफेद पोशाक धारण किये हो मैं अभागी आपको पहचान न सकी।”
तब एम्पेरुमानार ने अपना सही परिचय दिया और उससे उनकी आज्ञा को पुन: सुनाने को कहा जिसे एम्पेरुमानार ने उसे श्रीरंगम् में दिया था। उसने खुशी से पूर्व बातें बतायी और उसके पश्चात एम्पेरुमानार सभी को प्रसाद पाने की आज्ञा प्रदान किये। लेकिन वह स्वयं प्रसाद नहीं पाते हैं क्योंकि वह प्रसाद भगवान् को अर्पण नहीं किया हुआ था। तब उसने स्वामी जी को फल, दूध और शक्कर दिया और उसे स्वामी जी ने अपने भगवान् को अर्पण कर स्वयं ग्रहण किया। फिर वह श्रीवैष्णवों के पाने के बाद जो शेष प्रसाद बचा था उसे इकट्ठा कर अपने पति को देती है लेकिन स्वयं नहीं पाती है। इस पर उसके पति ने उससे पूछा कि तुमने यह प्रसाद क्यों नहीं लिया ? तब वह कहती है , “आपने एम्पेरुमानार को अपने आचार्य रूप में स्वीकार नहीं किया। वे इतनी दूर से हमारे तिरुमाली में पधारे हैं। केवल अगर आप उनको स्वीकार करने का वचन दे दें तो मैं प्रसाद ग्रहण कर लूँगी।” पति मान जाता है और फिर वह प्रसाद पाती है।
प्रात: काल वह ब्राह्मण एम्पेरुमानार के पास जाकर उनकी शरण हो जाता है। एम्पेरुमानार उसे उपदेश देते हैं और उसे शिष्य रूप में स्वीकार करते हैं। एम्पेरुमानार फिर काषाय वस्त्र धारण कर और त्रिदण्ड लेकर वहीं कुछ दिनों तक निवास कर फिर पश्चिम की ओर यात्रा प्रारम्भ करते हैं।
वे शालग्राम पहुँचते हैं जहाँ जैन और बौद्ध अधिक संख्या में रहते हैं और एम्पेरुमानार की ओर ध्यान नहीं देते थे। उन्होंने श्रीदाशरथी स्वामी जी को आज्ञा दिया कि गाँव के तालाब पर जाकर अपने पवित्र चरणों को तालाब के जल से धोकर जल को पवित्र करें और जिसने भी वह पवित्र जल को ग्रहण किया वह एम्पेरुमानार की ओर आकर्षित हो गया। श्रीआन्ध्रपूर्ण स्वामी जी ने एम्पेरुमानार को ही अपना सर्वस्व मान लिया था । वे आगे जाकर आचार्यनिष्ठा के एक महान उदाहरण हो गये। वहाँ से एम्पेरुमानार तोण्डनूर आकर वहाँ विट्ठल देव राय (उस क्षेत्र के राजा) कि बेटी को एक राक्षस से मुक्त किया। वह राजा और उसके परिवार एम्पेरुमानार के शिष्य बन गये और एम्पेरुमानार ने राजा को विष्णु वर्धन राय नाम दिया।
इस घटना को सुनकर 12000 जैन विद्वान एम्पेरुमानार से वाद-विवाद करने आ गये। एम्पेरुमानार अपने और उनके मध्य में एक पर्दा लगाते हैं। पर्दे के पीछे उन्होंने अपना वास्तविक हजार फणों वाले आदिशेष का रूप धारण करके सभी के सवालों का एक साथ जवाब दिया। परास्त हुये कई विद्वान एम्पेरुमानार के शिष्य बन गये । राजा भी एम्पेरुमानार का गुणगान करता है।
इस तरह एम्पेरुमानार तोण्डनूर में निवास करते समय उनका तिरुमण (तिलक करने का पासा) समाप्त हो गया और वे दु:खी हो गये। जब वे विश्राम कर रहे थे तभी श्रीसम्पतकुमार भगवान् उनके स्वप्न में आकर कहते हैं , “मैं आपका मेलकोटे में इंतजार कर रहा हूँ। यहाँ तिरुमण भी प्रचुर मात्रा में है।” राजा की सहायता से एम्पेरुमानार मेलकोटे पधारते हैं और भगवान् की पूजा के लिये जाते हैं। परन्तु दु:खी होकर देखते हैं कि यहाँ तो कोई मन्दिर हीं नहीं है। थकावट के कारण वे कुछ समय के लिये विश्राम करते हैं और भगवान् फिर से उनके स्वप्न में आकर अपना सही स्थान बताते हैं जहाँ उनको जमीन में रखा गया है। एम्पेरुमानार फिर भगवान् को जमीन में से बाहर लाकर भगवान् को श्रीसहस्रगीति का श्लोक निवेदन करते हैं जिसमें श्रीशठकोप स्वामी जी ने श्रीसम्पतकुमार भगवान् के गुणों का वर्णन किया है। वहीं उन्हें तिरुमण मिट्टी प्राप्त होती है जिससे वे अपने शरीर पर द्वादश तिलक धारण करते हैं। बाद में एम्पेरुमानार पूरे नगर को साफ कर और मन्दिर का पुन: निर्माण करते हैं और भगवान् की सेवा कैंकर्य के लिये कई सेवकों की व्यवस्था करते हैं।
उत्सव विग्रह की कमी के कारण वहाँ उत्सव मनाना बहुत कठिन था। जब एम्पेरुमानार इस विषय पर चिन्तित थे तब भगवान् फिर एक बार एम्पेरुमानार के स्वप्न में आकर कहते हैं, “रामप्रियन (उत्सव मूर्ति) दिल्ली के बादशाह के राजमहल में हैं।” एम्पेरुमानार उसी समय दिल्ली के लिये रवाना होते हैं और राजा से विग्रह को देने को कहते हैं। राजा एम्पेरुमानार को अपनी पुत्री के अंतरंग कक्ष में लाकर विग्रह दिखाते हैं। राजा की पुत्री को उस विग्रह से बहुत लगाव था और उस विग्रह से बहुत प्रेम भी करती थी। भगवान् को देख एम्पेरुमानार बहुत आनंदित हो गये और उस विग्रह को बाहर बुलाते हैं– “शेल्वपिल्लै यहाँ आइये।” भगवान् उसी समय कूदकर बाहर आकर एम्पेरुमानार के गोद में बैठ गये। यह देखकर राजा बहुत आश्चर्य चकित हुआ और बहुत आभूषण सहित भगवान् को एम्पेरुमानार के साथ भेज दिया। राजकुमारी को भगवान् की जुदाई से बहुत दु:ख हुआ और वह भी एम्पेरुमानार के पीछे-पीछे भगवान् के साथ चल देती है।
श्रीतिरुनारायणपुरम् की सीमा के नजदीक आने पर जिस तरह श्रीगोदाम्बा जी को भगवान् अपने में समा लेते हैं उसी तरह भगवान् ने राजकुमारी को भी अपने में समा लिया। भगवान् उनका तुलुक्का नाचियार नाम रखा और उनकी प्राण प्रतिष्ठा भगवान् के चरणकमलों में किया। उसके बाद गर्भगृह में उत्सव विग्रह की प्रतिष्ठापना कर और वहाँ सभी उत्सव मनाते हैं।
क्रमशः .........
–जय श्रीमन्नारायण