श्रीरामानुजाचार्य जी की दिव्य देश यात्रा
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श्रीवैष्णव जन श्रीरामानुज स्वामी जी के पास जाकर कहते हैं – “स्वामी जी! आपने श्रीवैष्णव सम्प्रदाय को प्रतिष्ठित किया है और विरोधी सिद्धान्तों को हराया है। अब कृपया तीर्थ यात्रा पर चलिये और राह में आनेवाले सभी दिव्यदेशों में पूजा कीजिये।” उनकी यह बात मानकर श्रीरामानुज स्वामी जी श्रीवैष्णवों के साथ श्रीरंगनाथ भगवान् (उत्सव विग्रह) की सन्निधि में गये और यात्रा के लिये आज्ञा लेकर यात्रा प्रारम्भ किया। श्रीरंगनाथ भगवान् ने आज्ञा प्रदान किया।
श्रीवैष्णवों के साथ श्रीरामानुज स्वामी जी यात्रा प्रारम्भ किये और भारतवर्ष के कई दिव्य देशों और क्षेत्रों में दर्शन किया। वे अपनी यात्रा चोलनाडु से प्रारम्भ कर और उस क्षेत्र में तिरुक्कुदंताई और अन्य दिव्यदेशों के दर्शन करते हैं। फिर वे तिरुमालिरुंचोलाई और अन्य मन्दिर से तिरुप्पुल्लाणि जाकर सेतु समुन्द्र के दर्शन कर आलवार तिरुनगरी पहुँचते हैं। वहाँ श्रीशठकोप स्वामी जी का मंगलाशासन “पोलिन्दु निनरा पिरान” इस तरह करते हैं।
श्रीशठकोप स्वामी जी एम्पेरुमानार को देख बहुर प्रसन्न हो उन्हें सभी सम्मान देते हैं। उडयवर वहाँ सभी नव तिरुपती के दर्शन करते हैं। राह में उनके सिद्धान्तों का विरोध करनेवालों को परास्त कर विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त कि स्थापना करते हैं।
वहाँ से तिरुकुरुंगुड़ी पधारते हैं। नम्बि उडयवर का स्वागत कर अर्चकों के जरिये उनसे वार्तालाप करते हैं। वे पूछते हैं कि “ यहाँ कोई अवतार लेकर भी शिष्यों को इकट्ठा नहीं कर सका और कैसे आप यह कार्य कर सके?” उडयवर कहते हैं – “मैं तुम्हें समझा सकता हूँ अगर आप मेरे शिष्य बनकर पूछेंगे तो।” उसी समय नम्बि श्रीरामानुज स्वामी जी को सिंहासन प्रदान कर उनके आगे विनम्रतापूर्वक खड़े हो गये। उडयवर सिंहासन के आगे बैठते हैं और अपने आचार्य श्रीमहापूर्ण स्वामी जी को सिंहासन पर बैठे हैं ऐसा स्मरण करते हैं और नम्बि को द्वय महामन्त्र कि महिमा को समझाते हैं और भगवान् से कहते हैं– इसी द्वय महामन्त्र कि शक्ति से उन्होंने सभी को इस पवित्र राह पर चलने के लिये मनाया है। भगवान् बहुत प्रसन्न होकर और श्रीरामानुज स्वामी जी को आचार्य रूप में स्वीकर करते हैं और एम्पेरुमानार खुश होकर भगवान् का नाम “श्रीवैष्णव नम्बि” रखते हैं।
फिर एम्पेरुमानार तिरुवण्परिसारम्, तिरुवात्तारु और तिरुवनन्तपुरम् को जाते हैं। तिरुवनन्तपुरम् में एक मठ की स्थापना कर कई पण्डितों के ऊपर विजय प्राप्त करते हैं। फिर उस क्षेत्र के कई दिव्यदेशों के भगवान् की पूजा करते हैं और पश्चिम तट से उत्तर भारत में पहुँचते हैं। वे मथुरा, सालग्राम, द्वारका, अयोध्या, बद्रिकाश्रम, नैमिषारण्य, पुष्कर में मंगलाशासन कर गोकुल, गोवर्धन, वृन्दावन, आदि भी जाते हैं और वहाँ भी विरोधी सिद्धान्तों के कई पण्डितों को परास्त करते हैं।
यहाँ से श्रीरामानुज स्वामी जी कश्मीर पहुँचते हैं और 'सरस्वती भण्डारम्' (साहित्यिक केन्द्र) जिसकी अध्यक्षा स्वयं सरस्वती देवी हैं। वे स्वयं श्रीरामानुज स्वामी जी का स्वागत कर उनसे छान्दोग्य उपनिषद् के मन्त्र–
'कप्यासं पुण्डरीकाक्षम्' –
तस्य यथा कप्यासं पुण्डरीकमेवमक्षिणी तस्योदिति नाम स एष सर्वेभ्यः पाप्मभ्य उदित उदेति ह वै सर्वेभ्यः पाप्मभ्यो य एवं वेद ॥
– छान्दोग्योपनिषद् ,1/6/7
[यह वह मन्त्र है जिससे श्रीरामानुज स्वामी जी और उनके बाल्यावस्था के आचार्य श्रीयादवप्रकाश के मध्य अनबन हो गई थी] का अर्थ समझाने को कहती हैं। श्रीरामानुज स्वामी जी ने इस श्लोक का विस्तृत से उत्तर दिया और उसका सही अर्थ भी स्थापित किया जो इस प्रकार है–
['कप्यासं पुण्डरीकाक्षम्' –
तस्य यथा कप्यासं पुण्डरीकमेवमक्षिणी तस्योदिति नाम स एष सर्वेभ्यः पाप्मभ्य उदित उदेति ह वै सर्वेभ्यः पाप्मभ्यो य एवं वेद ॥
– छान्दोग्योपनिषद् ,1/6/7
पूर्वपक्षितार्था ' ? उच्यन्ते:- कपिः – आदित्य '“कपि – चलने ? इति धातु ; कं पिबतीति च कपिः , कपिबभरित तेजनम् ? इति वैदिकप्रयोग ; तस्य (आसम् ) मण्डलम् - कप्यासम् ; यथा आदित्यमण्डलं हृदयपुण्डरीकं च उपासनस्थानम् , एवम् अक्षिणी अपि उपासनस्थानम् - इत्येकोऽर्थः । 'अयं नोपपद्यतेः – उपा स्यस्येति षष्ठयन्तं पदमध्याहार्यम् , उपासनस्थानमिति च ' अध्याहार्यम् ; एवं पदद्वयाध्याहारः ; समानविभक्तयन्तयोः पदयोः स्वतः प्राप्त सामानाधिकरण्यम्।
अत्र अर्थान्तरमुच्यते गम्भीराम्भस्समुद्भूत इति । कम् – जलम् , अस – भुवि अपिपूर्वक , वष्ट भागुरिलोपमवाप्योरुपसर्गयो । इति वचनात् अपेः अत्र अलोपः; कप्यासम् – सलिले विद्यमानमित्युक्तं भवतेि । एवं , वाक्यकारोक्तार्थत्रयकथनेन तस्य यथा कप्यासम् पुण्डरीकमेवमक्षिणी ? इति
श्रुतिवाक्यं व्याख्यातं भवति । 'रामः कमलपत्राक्षः', 'पुण्डरीकपलाशाभ्यां विप्रकीर्णमिवोद कम् ' , 'प्रसन्नवदनं चारुपद्मपत्रोपमेक्षणम् ', 'जितन्ते पुण्डरीकाक्ष' ! इत्यादिभिः पद्मपत्रसाम्यकथनात् पुण्डरीकस्य दलाभ्यामेव।
साम्यमिति दर्शयितुं दलशब्दः प्रयुक्त । यथा....पुण्डरीकम् , एवमक्षिणी । इत्युक्त 'पुण्डरीकात् अधिकगुणनिवृत्तिः मा भूत् ' इति आयतशब्दमयोगः । एवम् । इति सामान्येन पुण्डरीकाक्षेषु अतिदिष्टषु तद्वतदोषतिदेशो मा भूदिति अलशब्द एवमधिकगुणान्वयं दोषराहित्यं च अभिप्रेत्याभियुतैरुक्तम् – “अदीर्थ मप्रेमदुघं क्षणोज्ज्वलं न चोरमन्तःकरणस्य पश्यताम्, अनुब्जभब्जं नु कथं नेिदर्शनं, वनाद्रिनाथस्य विशालयोः दृशोः !” इति ।
'कप्यासम्' श्रुति की यादवप्रकाश द्वारा की गई व्याख्या–
"मरकटगुदमिव यत् कमलं एव नेत्रे इति व्याख्यातं , गोविन्दन्पाददेशिकविधेयैर्भगवत्पादै र्तदसंगतमनुचितमशास्त्रीयमश्लीलं च।"
अर्थात् वानर के पृष्ठान्तभाग जैसा जो कमल है, ऐसी यादवप्रकाश (श्रीआद्यशंकराचार्य) की व्याख्या असंगत,अनुचित, अशास्त्रीय और अश्लील है ।
इस विरुद्ध एवं दोषपूर्ण अर्थ को सुनकर स्वामी रामानुजाचार्य की आंखों से अश्रु-धारा बहने लगी।
यादवप्रकाश ने रामानुज जी से अश्रु-धारा बहने का कारण पूछा। स्वामी रामानुजाचार्य जी ने उत्तर दिया–
मुझे दुःख इस बात का है कि आपने कप्यासम्' श्रुति की व्याख्या श्रुति सिद्धान्त के विरुद्ध किया है।
यादव प्रकाश बोले, "फिर तुम्हीं इस श्रुति की व्याख्या मेरे सामने करो।"
श्रीरामानुजाचार्य जी ने 'कप्यासम्' श्रुति का सरलार्थ करते हुए कहा–
"गम्भीराम्भसि जातस्य प्रोद्यद्भानु करैस्तदा।
सम्फुल्ल दल पद्मस्य सदृशे लोचने हरे:।।"
–प्रपन्नामृतम्
"अर्थात् गहरे जल में उत्पन्न उगते हुए सूर्य की किरणों से नव विकसित कमलदल की तरह भगवान् के युगल नेत्र हैं।"
"His eyes are like lotuses blossomed by the sun. He is called ut because he is above all weakness. He who knows this truth is also above all weakness."
इसप्रकार इस श्रुति का यही उचित अर्थ है।
जिस वेदान्त में भगवान् को षड्गुण सम्पन्न कहा गया है, उस वेदान्त में भगवान् के उत्तमोत्तम नेत्रों की तुलना बन्दर के पायुभाग (नितम्ब) से कैसे की जा सकती है। श्रुति का शब्दार्थ भी देखें–
(कम्) जलम् पिबति इति कपि: सूर्य इत्यर्थः। तेन (आस्यते) क्षिप्यते इति कप्यासं कमलं इत्यर्थः। इस प्रकार हिरण्य पुरुष के नेत्रों की उपमा कमलपद से ही देना उचित है।
इस पर क्रुद्ध होकर यादवप्रकाश ने स्वामी रामानुज से कहा कि तुम अब यहाँ से चले जाओ। मैं तुम्हें शिक्षा नहीं दे सकता।]
सरस्वती देवी इस अर्थ से बहुत प्रसन्न हो उनकी श्रीभाष्य (ब्रह्मसूत्र पर टीका) को मस्तक पर रख उनकी स्तुति की। उन्होंने उनकी स्तुति कर उनको “श्रीभाष्यकार” की पदवी दी और श्रीहयग्रीव भगवान् का श्रीविग्रह प्रदान किया।
जब उडयवर पूछते हैं कि वे इतनी आनन्दित क्यों हुईं ? तब वे कहती हैं – पहले शंकराचार्य पधारे थे और जब उन्होंने यही श्लोक का अर्थ उनसे पूछा तो वे उचित अर्थ समझा नहीं पाये और एक विरोधी अर्थ समझाये। वे कहती हैं – “क्योंकि आप ने सही अर्थ समझाया है जिससे मैं संतुष्ट और आनन्दित हुई हूँ।”
वहाँ उपस्थित अन्य विद्वान् जो वहाँ इस वार्ता को सुन रहे थे उत्तेजित होकर चर्चा करने के लिये श्रीरामानुज स्वामी जी के पास आये। श्रीरामानुज स्वामी जी ने सभी को हराकर श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के सिद्धान्तों को स्थापित किया। यह देख राजा अचम्बित हो गया और उडयवर के शिष्य बन गये। हारे हुए विद्वान् गुस्सा हो गये और उन्होंने उडयवर को काले जादू के जरिये मारने कि साजिश रची। परन्तु इस जादू की उल्टी प्रतिक्रिया हुई और वे आपस मे ही एक-दूसरे से लड़ने लगे।
राजा श्रीरामानुज स्वामी जी से प्रार्थना करते हैं कि उन सभी को बचा लीजिए और फिर सभी शान्त हो श्रीरामानुज स्वामी जी के शिष्य बन जाते हैं।
वहाँ से वे वाराणसी जाकर गंगा में स्नान कर कण्डमेन्नुम कडी नगर दिव्य देश में पूजा करते हैं। वहाँ से में पुरुषोत्तम धाम (जगन्नाथ पुरी) पधारते हैं और भगवान् जगन्नाथ का मंगलाशासन करते हैं। वहाँ मायावादी विद्वान् को हराकर मठ की स्थापना करते हैं। वहाँ से श्रीकूर्मम्, सिंहादरी और अहोबिलम् पधारते हैं।
अन्त में वे तिरुमला आते हैं। उस समय कुछ शैवों ने यह विवाद किया कि भगवान् वेंकटेश का जो विग्रह है वह शिव जी का है। इनके हाथ में शंख-चक्र नहीं है। उडयवर फिर कहते हैं – “आप अपने भगवान् के शस्त्र भगवान् वेंकटेश के पास रखें और हम शङ्ख और चक्र उनके सामने रखते हैं। स्वयं भगवान् को यह निर्णय करने दीजिये कि वे कौन हैं और उसके अनुसार वे ही स्वयं शस्त्र को धारण करेंगे।”उन्होंने सभी को गर्भगृह से बाहर भेजा और कपाट बन्द कर दिया और सभी रात्रि में चले गये। प्रात:काल जब सभी वापिस आये और गर्भगृह का फाटक खोला तो श्रीरामानुज स्वामी जी व अन्य श्रीवैष्णव यह दृश्य देख आश्चर्य चकित हो गये। देखा कि भगवान् ने शङ्ख और चक्र को धारण किया है। इसके पश्चात श्रीरामानुज स्वामी जी तिरुपति पधारे और अपनी यात्रा यहाँ से प्रारम्भ किये।
फिर कांचीपुरम् , तिरुवल्लिक्केणी, तिरुनन्लमलाई और उस क्षेत्र के अन्य दिव्यदेश के दर्शन करते हैं। फिर मधुरान्तम् पधारते हैं और तोण्डै मण्डलम् में कई मायावादी विद्वानों को परास्त करते हैं। फिर तिरुवहिन्ध्रपुरम् और काट्टुमन्नार कोइल के स्थानों में दर्शन करते हैं।
इस तरह वें कई दिव्यदेशों कि यात्रा कर अपनी यात्रा समाप्त कर श्रीरंगम् लौटते हैं। फिर श्रीरंगनाथ भगवान् को अमलनाधिपिरान गाकर पूजा करते हैं। श्रीरंगनाथ भगवान् श्रीरामानुज स्वामी जी के कुशलमंगल के बारे में पूछते हैं। उडयवर कहते हैं– “हम निरन्तर आपके ध्यान में मग्न रहते हैं, आप चिन्ता न करें।” अब वे श्रीरंगम् में ही निवास करते हुये कृपापूर्वक अपना नित्य कैंकर्य करते हैं।
*–जय श्रीमन्नारायण।*