*श्रीमते यतिराजाय नमः*
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*‼️ गुरु ही सफलता का स्रोत‼️*
*भाग १०:--*
*गतांक से आगे:-------*
शिष्य का जीवन गुरु से जोड़कर ही पूर्ण बनता है जीवन की यात्रा तो संसार में जिसने भी जन्म लिया है वह करता ही है लेकिन कितने व्यक्ति इस जीवन में पूर्णता प्राप्त करते हैं यह ज्यादा महत्वपूर्ण है शास्त्रों में कहा है सत्य धर्म की पहचान तो स्पष्ट की है साथ ही जीवन जीने की कला को अति विशिष्ट भाव प्रभाव से स्पष्ट किया है वशिष्ठ उपनिषद गुरु और शिष्य का एक विशेष वर्णन आया है
*शिष्योर्वदातुम भव देव नित्यं, कठिनत्व पूर्णं दुर्लभं शरीरं।*
*चित्रं मय पूर्ण मदीव नित्यं, विश्वो ही एकं विश्वेठवनंजं।।*
इस श्लोक में ऋषि वशिष्ठ ने कहा है जीवन में कई लाख योनियों में भटकने के बाद यह मनुष्य शरीर मिलता है और आप सब मनुष्य है चाहे 5 वर्ष के हैं चाहे 30 वर्ष के हैं चाहे 100 वर्ष के इसमें पहली पंक्ति में कहां है गुरु हमारी जाति है हमारा गोत्र है गोत्र का मतलब वंश परम्परा है क्योंकि *जन्मना जायते शूद्र, संस्कारात द्विज उच्चयते* माता पिता ने जन्म दिया वह एक शूद्र के समान होता है शूद्र का मतलब कोई जाति विशेष से नहीं जिसको मल मूत्र का शुद्धता का भान ना हो वह शूद्र है और जिसको इस बात का ज्ञान हो दिव्यता हो श्रेष्ठता हो मन में करुणा हो प्रेम हो वह ब्राह्मण है प्रत्येक व्यक्ति जब जन्म लेता है तो शूद्र के रूप में होता है इसलिए उसको ज्ञान नहीं होता कि मैं टट्टी में पड़ा हूं पेशाब में पड़ा हूं मां को स्वच्छ करती है बाकी उसे हाथ से वह अपने किसी शरीर के अंग को जो व्यक्ति से भरा होता है लगा देता है जो 4 महीने का है 6 महीने का बालक होता है वह वापस मुंह में लगा लेता है उसी पलंग पर लेटा रहता है मल करता है उसी पर खेलते रहता है इसको इस बात का ज्ञान नहीं होता कि मैं कौन हूं क्या हूं और जब आप गुरु के पास आता है तब गुरु उसको एक नया संस्कार देते हैं उसको यह समझाते हैं कि यह उचित है यह अनुचित है और आज से तुम मेरी जाति के हो मेरे गोत्र के हो मेरे ही पुत्र हो मेरे नाम के हो तो संस्कार से द्विज होता है , द्विज का मतलब दूसरी बार जन्म लेने वाला परिवार ने उसको एक बार जन्म दिया दूसरी बार सद्गुरु में दीक्षा संस्कार के द्वारा उस को जन्म दिया और तब उसको भांग होता है कि मेरा जीवन लक्ष्य क्या है मेरा कर्तव्य क्या है उद्देश्य क्या है चिंतन क्या है और मुझे किस जगह पहुंचना है इस शरीर को यदि आप चार-पांच दिन तक धोएंगे नहीं तो यह शरीर दुर्गंध माई बन जाएगा आप चाहे कितना ही पाउडर क्रीम लिपस्टिक आदि लगाएं तब भी शरीर पर झुर्रियां पर ही जाएंगी इसी शरीर को भगवान का देवालय अर्थात मंदिर कहा गया है *शरीरं शुधं रक्षेत देवालय देवापि च* यह भगवान का मंदिर है जहां भगवान का एक मंदिर हो उसमें बाहर चारदीवारी होती है चारदीवारी के अंदर एक कमरा होता है कमरे के अंदर एक कमरा जिसे गर्भ ग्रह कहा जाता है उसमें भगवान का विग्रह स्थापित होता है ठीक उसी प्रकार से अंदर एक ईश्वर है और ईश्वर के बाहर एक शरीर है शरीर हड्डियों का ढांचा है फिर या चमड़ी ऐसी है जैसे चारदीवारी हो और यह चारदीवारी टूट जाती है तो भी बस अंदर घुस सकता है इसलिए शरीर को शुद्ध रखकर इसकी रक्षा करने का और पवित्र बनाए रखने का शास्त्रों ने आदेश दिया है आवश्यक है कि हम हर क्षण यह ध्यान रखें अंदर भगवान बैठे हैं अथवा जिन्हें हमने गुरु कहा है वह विराजमान हैं गुरु कोई *हाड़ मांस का पुतला अर्थात शरीर नही है* हमने जिन्हें गुरु स्वीकार किया है वह स्वयं परमपिता परमात्मा स्वरुप है एक क्षण ऐसा आता है की:--
*यः शिव सः गुरु प्रोक्ता*
*यः गुरु स: शिवः स्मृतः*
*तस्य भेदेन भावेन सः याति नरकामगति*।
यह शिव है वही गुरु है यह गुरु है वही शिव है शिव यानी कल्याण करने वाला सत्यम शिवम सुंदरम जो हमारा कल्याण कर सकें जो इसने भेद मानता है वह अधम है गुरु और शिव में भेद रहता है तो हमारे जीवन लक्ष्य में भेद रहता है जब यह भेद मिट जाता है एक क्षण ऐसा आता है जब साक्षात उस शिव तत्व का दर्शन होने लगता है मनोवृत्ति बदल जाती है हम ब्रह्म से मिलकर के अपना जीवन सुख सुविधा परिवार सारा संसार जप तप नियम संयम सभी कुछ उनको समर्पित कर देते हैं *त्वदीयं वस्तु गोविंदं तुभ्यमेव समर्पितं* हे नाथ यह आपकी दी हुई वस्तु है और आपको ही समर्पित कर रहा हूं क्योंकि आपने हमें पुनः जन्म दिया है आपने हमें वापस संस्कार दिए हैं इसलिए जो आप का दिया हुआ है वह आप को समर्पित है आप इसका जैसा चाहे उपयोग करें इसलिए शिष्य गुरु के हाथ गुरु पैर गुरु की आंख गुरु का मस्तिष्क कहा गया है क्योंकि गुरु अपने आपने कोई सागर बिंब नहीं है निराकार को एक मूर्ति का आकार दिया गया है यह सारे शिष्य मिलकर के एक गुरुत्व मय बनता है एक आकार बनता है इससे अगर मैं घमंड करूं कि मैं गुरु हूं तो यह व्यर्थ है क्योंकि हम विकार ग्रस्त हैं जब तक हमारा ध्यान इसलिए नहीं लगता कि हमारा चित्त चंचल है भटकता रहता है तो शास्त्रों में मूर्ति का आकार दिया है यह शिव है यह भगवती जगदंबा है यह नारायण हैं आदि आदि मूर्ति को देख कर उसी के स्वरूप को मन में बसा कर ध्यान करने से हमारा ध्यान एकाग्र होता है और हम दुनिया भी बातों को ना सोच कर उस परम नारायण का ध्यान करते हैं और सद्गति को प्राप्त करते हैं यह कार्य केवल गुरु की कृपा से ही संभव है गुरु के सानिध्य से संभव है गुरु के मार्गदर्शन से संभव है अन्यथा हम ना तो कुछ थे ना है और ना हो सकते हैं
*क्रमशः :------*
*श्रीमहंत*
*हर्षित कृष्णाचार्य*
*श्री जगदीश कृष्ण शरणागति आश्रम लखीमपुर-खीरी*
*मो0:- 9648769089