*श्रीमते रामानुजाय नमः*
*‼️आपकी जिज्ञासाएँ?हमारे समाधान‼️*
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*भाग ३:-*
*गतांक से आगे----*
*प्रश्न:- साधना अनुष्ठान में दिशा का महत्व?*
*उत्तर:-* अलग-अलग साधना अनुष्ठान आदमी मुहूर्त एवं स्थान के अनुसार एक निश्चित दिशा भी नियुक्त होती है जिस तरफ मुख करके ही साधना रत होने का विवरण शास्त्रों में दिया गया है परंतु एक विशेष दिशा की ओर मुख करने के पीछे क्या लाभ निहित है? आइए समझते हैं -----
*प्राची दिगग्निरधिपतिः , दक्षिणा दिगिन्द्रो$धिपतिः।*
*प्रतीचि दिग् वरुणो$धिपतिः, उदीचिदिक् सोमो$धिपतिः।।*
(अथर्व वेद ३/२७/१-४)
अर्थात प्रातः संध्या पूर्वा भिमुख होकर और सायँ संध्या पश्चिमाभिमुख होकर करनी चाहिए तथा देव कर्म पूर्व दिशा को करना चाहिए ऋषि पूजन उत्तर दिशा की ओर मुख कर के और पित्र कर्म दक्षिण दिशा की ओर मुख करके करना चाहिए ऐसा शास्त्रों में वर्णन है वेद यही कहता है प्रातः कालीन पूजन साधनों में पूर्व को मुख करने का सामान्यतः इसलिए प्रावधान है क्योंकि प्रातः से लेकर मध्यांतक सूर्य का तेज सामने रहने से साधक के ज्ञान तंतु अधिक स्फूर्ति संपन्न रहेंगे जिससे दैवीय गुण का विकास होता है एवं किया गया अनुष्ठान पूर्ण फलदाई सिद्ध होता है पठन-पाठन स्वाध्याय आदि ऋषि कर्म को उत्तर दिशा की ओर मुख करके करने का शास्त्र सम्मत विधान है इसके पीछे मंतव्य है की हिमालय जोकि अध्यात्म का विशालतम क्षेत्र है और वह उत्तर दिशा में स्थित है इसके साथ साथ मानसरोवर एवं भगवान शिव का कैलाश पर्वत भी उत्तर दिशा में ही स्थित है यही क्षेत्र अनेक विषयों की तपस्थली भी रहा है जिसे सिद्धाश्रम कहा जाता है अतः उनकी ओर मुख करके विद्या ग्रहण करना अथवा विद्या प्राप्ति हेतु साधनारत होना उचित ही है
*सिद्धाश्रम जो कि उच्च कोटि के सन्यासियों योगियों और ऋषि यों की तपोभूमि है जहां अत्रि कणाद गौतम जैसे विश्व भगवान कृष्ण जैसे दैवीय शक्तियां एवं शंकराचार्य जी जैसे दिव्य पुरुष आज भी सा शरीर विद्यमान है ऐसी दिव्य पुनीत स्थली भी हिमालय में उत्तर दिशा की ओर ही है इसी कारणवश गुरु दीक्षा के उपरांत शिष्यों को वाह साधकों को उत्तर की ओर मुख करके गुरु मंत्र जपने का निर्देश दिया जाता है यूं ही जब कोई दिशा न बताई गई हो तब भी उत्तर दिशा की ओर बैठकर मंत्र साधना करना श्रेष्ठ रहता है इससे सिद्धाश्रम के योगियों का एवं गुरु मंडल का निरंतर आशीर्वाद व सानिध्य प्राप्त होता रहता है*
इसी प्रकार पित्र तर्पण एवं पितृ कर्म व श्राद्ध आदि दक्षिण की ओर मुख करके किया जाता है वेदों में उल्लेख मिलता है कि चंद्र मंडल से ऊपर की कक्षा में पितर लोक विद्यमान है जोकि चंद्रमा से दक्षिण दिशा की ओर अवस्थित है इस प्रकार पितृ कर्म का अनुष्ठान दक्षिणा मुख किया जाता है दक्षिण के अलावा किसी अन्य दिशा की ओर मुख करके बैठने का अर्थ है कि अपने पित्र देवताओं के आगमन पर हम उनका अपमान कर रहे हैं उनकी ओर पीठ करके बैठे हैं जिससे वह रुष्ट होते हैं और पितरों के रुष्ट होने पर गृह क्लेश आपसी मनमुटाव रोजगार आदमी हानि किसी कार्य में मनका न लगना उदासीन रहना आदि कष्ट कारक उपद्रव होने लगते हैं इन्हीं के साथ संतान की कुंडली में पित्र दोष कालसर्प योग आदि दुश योग बन जाते हैं अतः किसी भी प्रकार से पितरों का अपमान नहीं किया जाता है इसीलिए दक्षिण की ओर मुख करके पितृ कर्म किया जाता है इसी प्रकार सायंकाल को पश्चिम दिशा की ओर मुख करके संध्या की जाती है क्योंकि सूर्य उस समय पश्चिम दिशा में होता है जिससे साधक को वही लाभ प्राप्त होता है जो प्रातः काल पूर्व दिशा की ओर मुख कर संध्या करने से होता है यदि अनुसंधान करें तो हमारी प्रत्येक साधना पद्धति प्रत्येक अनुष्ठान प्रत्येक पूजन के पीछे कोई ना कोई आध्यात्मिक और वैज्ञानिक कारण छुपा हुआ है जिसको न जानने से हम उसे मात्र एक परंपरा मान बैठे हैं वस्तुतः यह एक संपूर्ण विज्ञान ही होता है पितरों के पूजन के पीछे एक रहस्य और भी छिपा है कि जब हम श्राद्ध करते हैं तो मनुष्यों के साथ-साथ जीव जंतु पशु पक्षी आदि को भी भोजन दिया जाता है पित्र लोगों के बहाने से ही सही लेकिन पर्यावरण संरक्षण पशु पक्षियों का संरक्षण उनका पोषण निहित है सर्वप्रथम भोजन का थाल लगा कर के पितरों को आवा हित किया जाता है तदोपरांत कुत्ता कौवा चींटी इत्यादि जीवो को ग्रास दिया जाता है गाय को ग्रास दिया जाता है जिससे उनका भी भरण पोषण होता रहे इसके पीछे का उद्देश्य इन सभी जीव जंतुओं की रक्षा और उन का भरण पोषण ही है हमारे पूर्वजों ने जो परंपराएं बनाई हैं उन परंपराओं के पीछे सदैव एक रहस्य छुपा रहा है और उस रहस्य के कारण ही उन्होंने अपने शिष्यों अथवा अपने अनुयायियों को दिशा निर्देशित किया और इस कार्य के लिए बारंबार प्रेरित किया है करते रहे हैं और कर रहे हैं जिससे यह परंपरा अनवरत चलती रहे इन जीव जंतु वृक्षों जड़ी बूटियों आदि का संरक्षण होता रहे और उनकी आवश्यकता का महत्व हमारी आने वाली पीढ़ियां समझ सके जिससे वह भी किसी न किसी बहाने से इनका संरक्षण करें और हमारा यह भूलेख हरा भरा और खुशहाल बना रहे।।
*क्रमशः*
*जय श्रीमन्नारायण*
*श्रीमहंत*
*हर्षित कृष्णाचार्य*
*प्रवक्ता*
*संगीतमय श्रीमद् भागवत कथा एवं श्री राम कथा व ज्योतिष फलादेश कर्ता*
*श्री जगदीश कृष्ण शरणागति आश्रम लखीमपुर-खीरी उत्तरप्रदेश*