प्रश्नकर्ता - लहसुन-प्याज खाना चाहिए अथवा नहीं ? श्री बागेश्वर धाम सरकार एवं श्री अनिरुद्धाचार्य जी महाराज ने इस सन्दर्भ में परस्पर विरोधी वक्तव्य दिये हैं, कृपया समाधान करें।
निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद गुरु - समाज दो दृष्टिकोण से बनता है। एक तो - "क्या हो रहा है", दूसरा, "क्या होना चाहिये"। जो "हो रहा है", उसमें युग और परिवेश की प्राधान्यता होती है। जो "होना चाहिये", उसमें शास्त्र की प्राधान्यता होती है। युग एवं परिवेश परिवर्तनशील होने से कभी उन्नति तो कभी अवनति का कारण बनते हैं किन्तु शास्त्र अपरिवर्तनीय एवं कालातीत होने से स्वानुगामी को सदैव उन्नत ही करते हैं। भगवान् श्री रामानुजाचार्य जी कहते हैं - आहारोऽपि सर्वस्य प्राणिजातस्य सत्त्वादिगुणत्रयान्वयेन त्रिविधः प्रियो भवति।
प्रत्येक प्राणी के अपने पूर्व संस्कार एवं परिवेश के आधार पर सात्विक (श्रेष्ठ), राजस (सामान्य) एवं तामस (निकृष्ट), ऐसे तीन प्रकार के आहार की अभिरुचि होती है।
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा - आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रियः।
आचार्य मधुसूदन सरस्वती जी कहते हैं - आहारोऽपि सर्वस्य प्रियस्त्रिविध एव भवति।
केवल मेरा नहीं, आपका नहीं, अपितु 'सर्वस्य' ... सबों का ... सभी देहधारियों का। उसमें जो तामसी आहार है, उसके लक्षण में कहते हैं -
यातयामं गतरसं पूति पर्युषितञ्च यत्।
उच्छिष्टमपि चामेध्यं भोजनं तामसप्रियम्॥
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय - १७)
इसमें 'पूति' लक्षण वाले आहार को तामसी जनों का प्रिय बताया गया है। इसका समर्थन कल्किपुराण भी करता है।
पूतिपर्युषितं ज्ञेयं भोजनं तामसप्रियम्॥
(कल्किपुराण)
अब पूति का क्या अर्थ है ? जिसमें दुर्गन्ध हो - पूतिदुर्गन्धोपेतम् (रामानुजभाष्य) आचार्य धनपति इसमें और स्पष्ट करते हुए कहते हैं, किस प्रकार का दुर्गन्ध ? जैसा लहसुन प्याज में है, उस प्रकार का। पूतिर्दुर्गन्धि लशुनपलाण्ड्वादि (धनपतिव्याख्या)।
किसी भी कृत्याकृत्य या भक्ष्याभक्ष्य के निर्धारण में सर्वथा शास्त्र और ऋषिवाक्य ही परम प्रमाण होते हैं। प्रमाणक्रम में हम देखते हैं कि उस विषय में वेद भगवान् क्या कहते हैं ?
मद्यं मांसं च लशुनं पलाण्डुं शिग्रुमेव च।
श्लेष्मातकं विड्वराहमभक्ष्यं वर्जयेन्नरः॥
(रुद्राक्षजाबालोपनिषत्)
इस प्रकार वेद ने निषेध किया। अब उसके बाद स्मृति का स्थान आता है, उन्होंने भी मना किया है।
लशुनं गृञ्जनं चैव पलाण्डुं कवकानि च।
अभक्ष्याणि द्विजातीनां अमेध्यप्रभवानि च॥
(मनुस्मृति, पञ्चम अध्याय)
पलाण्डुं विड्वराहं च छत्राकं ग्रामकुक्कुटम्।
लशुनं गृञ्जनं चैव जग्ध्वा चान्द्रायणं चरेत्॥
(याज्ञवल्क्य स्मृति, आचाराध्याय)
अब इसके बाद कतिपय इतिहास-पुराण के प्रमाणों पर भी दृष्टि डालें -
मद्यं मांसं तु लशुनं पलाण्डुं शिग्रुमेव च।
श्लेष्मान्तकं विड्वराहं भक्षणे वर्जयेत्ततः॥
(शिवपुराण, विश्वेश्वरसंहिता, अध्याय - २५)
मद्यं मांसं च लशुनं पलाण्डुं शिग्रुमेव च।
श्लेष्मातकं विड्वराहं भक्षणे वर्जयेत्ततः॥
(श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण, स्कन्ध - ११, अध्याय - ०७, श्लोक - ४०)
तुम्बकोशातकं चैव पलाण्डुं गृञ्जनं तथा।
छत्राकं लशुनं चैव भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत्॥
(महाभारत, आश्वमेधिक पर्व)
पलाण्डुं लशुनं शुक्तं निर्यासं चैव वर्जयेत्।
(पद्मपुराण, स्वर्गखण्ड, अध्याय - ५६)
पलाण्डुं लशुनं शिग्रुमलाबुं गृञ्जनं पलम्।
भुङ्क्ते यो वै नरो ब्रह्मन् व्रतं चान्द्रायणं चरेत्॥
(पद्मपुराण, ब्रह्मखण्ड, अध्याय - १९)
लशुनं गृञ्जनं चाद्यात्प्राजापत्यादिना शुचिः।
(अग्निपुराण, अध्याय - १६८)
पलाण्डुं लशुनं चैव भुक्त्वा चान्द्रायणं चरेत्।
(कूर्मपुराण)
भूस्तृणं लशुनं भुक्त्वा शिशुकं कृच्छ्रमाचरेत्।
(अग्निपुराण, अध्याय - १७३)
उपर्युक्त प्रमाणों से स्पष्ट है कि लहसुन प्याज खाना केवल वर्जित ही नहीं, अपितु पतनकारी भी है क्योंकि अधोगच्छन्ति तामसाः (श्रीमद्भगवद्गीता)। खाने पर कृच्छ्र, प्राजापत्य, चान्द्रायण आदि व्रतों का प्रायश्चित्त निर्देश भी है।
अब देखना यह है कि किसके लिए वर्जित है और किसके लिए नहीं ? तो प्रथम सात्विक मार्ग का आश्रय लेने वाले सभी लोगों के लिए निषिद्ध है। द्विजाति के लिये तो सर्वथा निषिद्ध है, शूद्रवर्ण को छूट है क्योंकि उनमें शास्त्रोक्त दृष्ट्या तमोगुण अधिक होता है। ब्राह्मण भी तमोगुणी हो जाये तो वह संस्कार और धृति की दृष्टि से शौद्रलक्षणापन्न होने लगता है। अन्न से रस, रस से वृत्ति, वृत्ति से क्रिया और क्रिया से संस्कार का निर्माण होता है अतएव उत्तम संस्कार हेतु सात्विक अन्न का आश्रय लेना चाहिए।
तैत्तिरीय ब्राह्मण का कथन है - अन्नात् परिस्रुतो रसम्। मुण्डकोपनिषत् का कथन है - अन्नात्प्राणो मनः सत्यं लोकाः कर्मसु चामृतम्॥
शास्त्रीय सत्वबुद्धि से लहसुन प्याज का समर्थन नहीं किया जा सकता, कोई तमोबुद्धि से ग्रहण करना चाहे तो अलग बात है। आयुर्वेद के जिन कल्पों में रोगनिवारण हेतु शोधित रूप में लहसुन प्याज के सेवन का वर्णन है, वहाँ अपरिहार्य स्थिति में देहरक्षण हेतु कुशल चिकित्सक के कहने पर सविधि ग्रहण करना दोषकारक नहीं है, फिर भी स्वस्थ होने के अनन्तर यथासाध्य भूतशुद्धि एवं प्रायश्चित्त करना चाहिए।
*श्रीमहन्त*
*स्वामी हर्षित कृष्णाचार्य*
पुराण प्रवक्ता/ ज्योतिर्विद
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